भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पृथ्वी के विषय में / गोविन्द माथुर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:03, 3 जुलाई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गोविन्द माथुर }} बहुत बुरे दिनों की आहट सुनाई दे रही है...)
बहुत बुरे दिनों की
आहट सुनाई दे रही है मुझे
बहुत सहा है इस पृथ्वी ने
बहुत सुना है देखा है
इस पृथ्वी ने इस पृथ्वी पर
कितने महारथियों ने
कितनी रथ-यात्राओं ने
रौंदा है इस पृथ्वी को
इस पृथ्वी पर
अब मुझे लगता है
पृथ्वी के सहने के दिन गए
विचलित हो उठी है पृथ्वी
यदि पृथ्वी ने ली एक भी करवट
क्या होगा धर्मध्वजाओं का
कहाँ टिकेगें रथ
किसी भी जन्म स्थान को
बचाने से पहले सोचना चाहिए
समुद्र पहाड़ जंगल के विषय में
इस पृथ्वी पर इस पृथ्वी के विषय में