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बेटियाँ / गोविन्द माथुर

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बेटी का जन्म होने पर

छत पर जा कर नही बजाई जाती

काँसे की थाली

बेटी का जन्म होने पर

घर के बुजुर्ग के चेहरे पर

बढ़ जाती हैं चिन्ता की रेखाएँ


बेटियाँ तो यूँ ही

बढ़ जाती हैं रूँख-सी

बिन सीचें ही हो जाती हैं ताड़-सी

फैला लेती हैं जड़ें पूरे परिवार में


बेटे तो होते हैं कुलदीपक

नाम रोशन करते ही रहते हैं

बेटियाँ होती हैं घर की इज्ज़त

दबी ढँकी ही अच्छी लगती हैं


बेटियों का हँसना बेटियों का बोलना

बेटियों का खाना अच्छा नहीं लगता

बेटियाँ तो अच्छी लगती हैं

खाना बनाती, बर्तन मांजती

कपड़े धोती, पानी भरती

भाईयों की डाँट सुनती


ससुराल जाने के बाद

माँओं को बड़ी याद आती हैं बेटियाँ

जैसे बिछुड गई हो उनकी कोई सहेली

घर के सारे सुख-दुख किस से कहें वो

बेटे तो आते हैं मेहमान से

उन्हें क्या मालूम माँ क्या सोचती है


बेटियाँ ससुराल जा कर भी

अलग नहीं होती जड़ों से

लौट-लौट आती हैं

सहेजने तुलसी का बिरवा

जमा जाती है माँ का बक्सा टाँक जाती है

पिता के कमीज़ पर बटन


बेटे का जन्म होने पर

छत पर जा कर

काँसे की थाली बजाती है बेटियाँ