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कृषक (दोहे) / गरिमा सक्सेना

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किस्मत हल को खेत में ,कृषक रहा है खींच।
माटी को सोना करे ,श्रम से अपने सींच।।

बाढ़ कभी सूखा कभी, सहे भाग्य की मार।
मरते रोज किसान हैं चुप बैठी सरकार।।

भीगी पलकों को लिये, बैठा कृषक उदास।
अम्बर को है ताकता, ले वर्षा की आस।।

सिर पर कर्जा है चढ़ा,खाली हैं खलिहान।
किस्मत शायद ले रही, श्रम का इम्तिहान।।

श्रम से माटी सींचता, धीरज के हैं बीज।
खेती जीवन कृषक का,यही पर्व औ तीज।।

अन्न उगाता जो स्वयं, भूखा मरता आज।
लेकिन क्यूं सरकार को, तनिक न आये लाज।।