भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आँगन में आएल जब पाहुन / रामेश्वर प्रसाद
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:58, 30 मार्च 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामेश्वर प्रसाद |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
आँगन में आएल जब पाहुन
देख प्रिया के लाज लगल।
पायल बोलल–‘रुक जा गोरी !’
शरमायेल इ आँख ठगल।।
जब-जब आँख उठल पाहुन पर,
तब-तब आँख टिकल फागुन पर,
तब-तब प्राण विकल वीणा बन
थिरक उठल वासंती धुन पर।
प्राण-पपीहा व्याकुल लागल,
पीर ह्रदय के साज बनल बनल।।
थिरक उठल मन के शहनाई,
लोचन लोल अधिक शरमायेल,
पिघलल जब आरुण्य उषा के,
याद विकल मधुवन के आएल।
मधुर अधर के परस अजाने
मदिर सुरा के रास लगल।।
आँख मदिर मधु-स्नात झंपायेल ,
मधुऋतु में मनमोहन आएल,
परदेशी त∙ परदेशी हए,
छोड़ चली, तदपि नित पायल।
लेके आहात प्रीत पीर में
प्रिया प्राण के बीच फँसल।।