बज्जिका दोहा / रामविलास
चाहू जीवन में रही, अपने सदा अटूट।
भुलिओ के न परे दू, अपना घर में फूट।।
कईसन आएल व्यस्तता, केतना लमहर काम।
कईसन मन के मईल हए, छूटल दोआ-सलाम।।
साध हिरासत में चलल, चोर बनल नरनाह।
मानवता ई दौर में सबसे अधिक तबाह।।
कुपथ-कुपथ चलइत रहल हए जेक्कर मन-नैन।
ओकरा जिनगी में कहाँ, मिल पाएल सुख-चैन।।
जीभ बन्हल हए स्वाद से, हटल स्वास्थ से ध्यान।
ई आदत लाबे तुरत, जीवन के अवसान।।
कहूं न हए ईमान पर चाटुकार के ध्यान।
आदर गुंडा के करे, सज्जन के अपमान।।
सुख सुनके सब जार मरत, दुख सुनके उपहास।
सुख-दुख के चरचा कहूं, करू न केकरो पास।।
सुविधाभोगी व्यर्थ में, कलम पकड़ के रोए।
जे बेचैनी में जीये, ओहे लेखक होए।।
चार चकइठा पूत पर एगो मइआ भार।
चार नटिनिआँ जीभ में बान्हले हए तलवार।।
संउसे दुनिआ साथ हए, पत्नी करे विरोध।
पति निर्बल झेलइत रहत, जीवन भर अवरोध।।
पिता लुताबे पुत्र पर यौवन में संसार।
पुत्र उठाबे पिता के चउथापन के भार।।
जौन चले ईमान पर, ऊ होए हलकान।
जे एककर सौदा करे, ओहे बने महान।।