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बूढ़ा पीपर / राम सिंहासन सिंह

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बूढ़ा पीपर
हमर गाँव के
पूछ रहल हे-
एक
दहकईत सवाल
संख अईसन गोर धरती से।
कउन लहका रहल हे
नफरत के ई आग
बुद्ध के अँगना में?
तनि, तू ही बता द न!
गंगा, फल्गु आउ पुनपुन
कि ई सीमाना से ऊ सीमाना तक
मगध के पसरल कछार में कउन घोर देलक हे
गंगा अईसन पवितर जल में विख!
भरारी मेला के
पवितर संगम के धारा
तूहिं बोलऽ न
कहाँ गेल ऊ प्रेम आऊ सांति
के सनेस?
कलपईत, सिंसकईत वानभट के
कान में
तू ही कह द न!
कि कउन छल कपटी
ओकर ग्यान के ड्योढ़ी पर
खेला रहल हे-
विनासवाला अंधरपटकी के खेल।
सगरो
खेत बधारे
धोराही, बागीचा, बान्ह से तरी तक
जौ, गेहूँ, बूट, खेसारी
सकरकंद, मिसरीकंद, केतारी
सब के सब
ले-ले हे आज
पिसतौल, पसुली, कटारी।
कहाँ गेल?
बुद्ध के अहिंसा
राम के आदर्स
कृसन के न्याय?
सगरो सिसक रहल हे-
आज
मानवता
दम घूँट रहल हे
हमर देस के
हर नर-नारी के।
हो, रहल हे
पाँचाली के चीर हरन
यही हल हमर भारत
भारत के स्वरूप?
कहाँ गेल?
मगध के महिमा
चन्द्रगुप्त
आऊ
चान्कय के
नीति
फिर से उठ भारत के सपूत
कन-कन में कर
उदघोस
न्यायय आऊ नैतिकता के
आऊ
पुनः
हुँकार भर-
सर्वे भवन्तुः सुखिनः।
सर्वे सन्तु निरामयाः।।