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एक बिन्दी लगा साँवली खिल उठी / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

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एक बिन्दी लगा साँवली खिल उठी।
चाँद को पा के ज्यूँ यामिनी खिल उठी।
 
गुदगुदी कर छुपीं धान की बालियाँ,
खेत हँसने लगे भारती खिल उठी।
 
बल्ब लाखों जले, खिन्न फिर भी महल,
एक दीपक जला झोपड़ी खिल उठी।
 
जब किसानों पे लिखने लगा मैं ग़ज़ल,
मुस्कुराया क़लम डायरी खिल उठी।
 
एक नटखट दुपट्टा मचलने लगा,
उसको बाँहों में भर अलगनी खिल उठी।
 
उसने पूजा की थाली में क्या धर दिया,
कुमकुमे हँस दिये रोशनी खिल उठी।