इक्कीस कविताएँ / दुन्या मिखाईल / राजेश चन्द्र
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(1)
कछुए की तरह
घूमती रहती हूँ मैं
यहाँ से वहाँ
अपनी पीठ पर लादे हुए
अपना घर।
(2)
दीवार पर टँगा आईना
नहीं दिखाता
उनमें से किसी भी चेहरे को
जो गुज़रते हैं
उसके सामने से।
(3)
मृतक
चन्द्रमा जैसे होते हैं
पीछे छोड़ कर
पृथ्वी को
वे दूर निकल जाते हैं।
(4)
ओह, नन्हीं चींटियो,
कैसे आगे बढ़ती रहती हो तुम
पीछे मुड़ कर देखे बिना।
काश !
मैं उधार ले पाती तुम्हारे ये पाँव
केवल पाँच मिनट के लिए।
(5)
हम सभी
पत्ते हैं
शरद ऋतु के
हर समय
गिरने को तैयार।
(6)
मकड़ी
अपना घर
ख़ुद बाहर ही
बनाती है।
वह कभी भी
उसे नहीं कहती
निर्वासन।
(7)
मैं
कबूतर नहीं हूँ
कि याद रख सकूँ
अपने
घर का रास्ता।
(8)
ठीक इसी तरह,
उन्होंने
गट्ठर बनाया
हमारे हरित वर्षों का
एक
भूखी
भेड़ की भूख
मिटाने के लिये।
(9)
बेशक आप
'प्यार' शब्द को
देख नहीं पाएँगे
मैंने
पानी पर
लिखा था उसे।
(10)
पूरा चान्द
एक शून्य की तरह
दिखाई देता है
जीवन गोल है
अपनी परिणति में।
(11)
दादा ने
देश छोड़ा था
एक सूटकेस के साथ
पिता ने
ख़ाली हाथ छोड़ा
पुत्र ने छोड़ा
हाथों के बिना ही
(12)
नहीं,
मैं ऊब नहीं गई हूँ
तुमसे
चन्द्रमा भी तो
आता ही है
बिला नागा हर रोज़
(13)
उसने
अपने दर्द का
चित्र बनाया :
एक रंगीन पत्थर
भीतर समुद्र की अतल गहराई में।
मछलियाँ गुज़रती हैं वहाँ से,
वे उसे छू नहीं सकतीं।
(14)
वह
बिल्कुल सुरक्षित थी
अपनी माँ के
गर्भ की गहराइयों में।
(15)
लालटेनें
रात की अहमियत
जानती हैं
वे कहीं अधिक
धैर्यशील हैं
बनिस्बत सितारों के।
वे टिकी रहती हैं
सुबह होने तक।
(16)
पृथ्वी
इतनी साधारण है
कि आप एक आँसू
या एक हँसी के साथ
उसकी क़ैफ़ियत जान सकते हैं।
पृथ्वी इतनी जटिल है
कि उसकी क़ैफ़ियत जानने के लिए
आपको
एक आँसू
या एक हँसी की ज़रूरत
पड़ सकती है।
(17)
जो सँख्या
देख पा रहे हैं आप
वह अनिवार्य रूप से बदल जाएगी
अगले ही पासे के साथ।
ज़िन्दगी नहीं दिखाती
अपनी सारी शक़्लें
एकबारगी।
(18)
सुहाना पल
समाप्त हो चुका हे।
मैं एक घण्टा
बिता चुकी हूँ
उस पल के बारे में सोचते हुए।
(19)
तितलियाँ
पराग कण लाती हैं
अपने नन्हें पाँवों के साथ,
और उड़ जाती हैं।
फूल ऐसा नहीं कर पाते।
इसीलिये उनकी पत्तियाँ
होती हैं स्पन्दित
और उनके मुकुट
सिक्त रहा करते हैं
आँसुओं से।
(20)
हमारे कितने ही
आदिवासी साथी
युद्ध में मारे गए।
कुछ स्वाभाविक
मौत मर गए।
उनमें से कोई भी
ख़ुशी के मारे नहीं मरा।
(21)
जनता
चौक पर खड़ी
ताम्बे से बनी
वह औरत है
जो बिकाऊ नहीं है।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : राजेश चन्द्र