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संस्कार / शान्ति प्रकाश 'जिज्ञासु'

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दादा परदादै दियीं
संस्कारुं की गेड़
पितजी हमरा अगनै खोलणा रैनी
पड़त दर पड़त
ग्वाया लगांद समझैनी रिस्ता
मां-बाबा दादा-दादी
छोट्टा अर बड़ा
लमडण पर समझै
भेळ अर सैंणा फर्क
सुबेर उठी फोटु देखी बोली
जै कर
हे भगवान ! मे थै बड़ु कर दे
अर एक दिन मि भौत बड़ु ह्वैग्यों
मिन बोली पितजी अब मी बच्चा नि छौं
अपडु़ भलु बुरु अफ समझ सकदौं
अर निकळग्यों एक लम्बा सफर पर
जख धन दौलत पैसा ही पैसा च
सुपन्यों कु स्वर्ग
क्वी कमी च त बक्तै
पर जब थक लगी त पिछनै देखी
चरि तरफ सुनसान भुयंकार
नाता न रिस्ता द्यो न देवता
न वु संस्कार
जु पितज्या समळ्यां रैनी आज तक
वूंन मै तैं बतै की निरमोल कर देनी
वु संस्कार जु ब्याळी तक
धरोहर छै हमरी मनख्यात् की ।