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महलों के सब मौन चीखते / आदर्श सिंह 'निखिल'

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महलों के सब मौन चीखते
चढ़कर ऊंचे कंगूरों पर
ये मुस्काता खड़ा कौन है
झोपड़ियों की चीख मौन है।

कोई मांग रहा है खुशियां
घड़ी घड़ी हर बात बात पर
कोई सुख के बांध बनाता
रिसती पीड़ा के प्रपात पर
व्यथित हो रही भरी तिजोरी छाती पीटे साहूकारी
कैसे नाहक खुश रह लेता दरवाजे पर खड़ा भिखारी
प्राचीरों के पार सहमती
चौराहों पर भीख मौन है।

कुछ चौबारों पर सजती ये
तृष्णा की खूनी रंगोली
तुष्टि लिपे गोबर में करती
कहीं पसरकर हंसी ठिठोली
दुर्ग कंगूरे सुघड़ मलिन मन खोज रहे कोई कस्तूरी
वहां फूस की छत के नीचे कैसे दमक रही मजदूरी
नगरों की माया से विचलित
गावों की हर सीख मौन है।

अमिट क्षुधा में दफन हो गयीं
कितनी रकमें मोटी मोटी
इधर भूख संतुष्ट हो गयी
मानुष चार महज दो रोटी
कांप रही ये शीत लहर से थर थर मोटी गरम रजाई
मुस्काता नंगा तन चूमे कैसे ठिठुर रही पुरवाई
अर्थतंत्र द्वारा उन्मूलित
वेदों की तारीख मौन है।