भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कैसे कह दूँ आँखों में अब / मानोशी

Kavita Kosh से
Manoshi Chatterjee (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:28, 14 अप्रैल 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मानोशी |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGeet}} <poe...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कैसे कह दूँ आंखों में अब बाकी कोई स्वप्न नहीं है ।

जब आँधी ने ज़ोर पकड़ ली
तब भी हार नहीं मानी थी,
बारिश, तूफ़ां, रात घनेरी
सब से लड़ने की ठानी थी,
ध्वस्त किले में बना खंडहर
सो रहा है , मगर अभी भी
सुंदर किस्से बांच रहा है
थका नहीं है स्वप्न कभी भी

मिली नहीं हो जीवन भर की खुशियाँ लेकिन बिखरी-बिखरी
इधर-उधर मिल जायेंगी टुकड़ों में, साथी, ढूँढ! यहीं हैं...


यूँ तो जीवन बीत गया पर
अभी अधूरा सा लगता है,
क्या पाया क्या खोया बस यह
गिनने मे ही दिन कटता है
आंखें आंसू से धोती जब
मेरे दुख के मुर्झाये पल
बच्चों की किलकारी से खिल
उठता आंखों में पलता कल

शाम ढले फिर हो जाता है दिल बोझिल पत्थर सा कोई
वो जो छूट गया पीछे फिर मिलता क्या अब दोस्त कहीं है?

कैसे कह दूँ आंखों में अब बाकी कोई स्वप्न नहीं है...