भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खोजो-खोजो / विजय गौड़

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:12, 18 अप्रैल 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजय गौड़ |संग्रह=सबसे ठीक नदी का...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
लाल-धधकती भट्टी में
पिघलती हुई धातु है
खाँचे में आती है
एक-एक कर बनते हैं यन्त्र
सीधा-सा सूत्र है
न कोई तन्त्र,
मन्त्र !

बड़ी-बड़ी लौह मशीन के
खो जाएँगें छोटे-छोटे पुर्जे
मल्टीनेशनल, मल्टीनेशनल
वैश्वीकृत बाज़ार का
होगा नहीं कोई ज़िम्मेदार
होशियार-होशियार
खेतों पर पड़ने वाली है मार

भूमि पर हो किसका अधिकार
उठा सवाल बार-बार
अबकी बार
और एक बार

इसी तरह धीरे-धीरे होगा साफ़ आकाश

अभी तो सूखे हुए ताल में
पोखर में, थाल में
सूर्य की ऊष्मा
गोल-गोल घेरा है

छँटता सवेरा है;
दूर ओट में लुक-छिप
खोजो, खोजो, खोजो।