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रक्खा है / साहिल परमार

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हम ने सीने में समन्दर को छुपा रक्खा है,
एक ज्वाला को कलेजे में दबा रक्खा है।

कितनी पर्तें जमीं हुई हैं और सड़न कितनी,
ऐसी एक लाश को क्यूँ सर पे उठा रक्खा है।

हम भटक जाएँ पहुँच जाएँगे कुछ तो होगा,
चन्द राहों से क्यूँ पैरों को बन्धा रक्खा है।

आजकल आँखें भी बारूद उगलती हैं बहुत,
हाय अफ़सोस ! निशाने को बदल रक्खा है।

जो मेरे देश की मिट्टी को बेचते हैं ‘साहिल’,
हम ने उन्हीं को तो गद्दी पे बिठा रक्खा है।

मूल गुजराती से अनुवाद : स्वयं साहिल परमार