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लोकगीत / प्रेमशंकर शुक्ल
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मेरे कंठ ने अभी जिस
सुगंधित-कोमल लोकगीत का
स्पर्श पाया। वह एक मेहनतकश सुंदर स्त्री के
होंठ से फूटा है पहली बार।
इस गीत में जो घास गंध है,
पानी-सी कोमलता, आकाश जितना अथाहपन
और हरी-भरी धरती की आकांक्षा
स्वप्न की जगह सुंदर और यथार्थ से
जूझने की इतनी ताक़त। इन सब से
लगता है कि स्त्री ही जन्म दे सकती है
ऎसे गीत को।
लय की मिठास के साथ
गीत में धीरज का निर्वाह
बढ़ा देता है और विश्वास
कि मेहनतकश सुंदर स्त्री ही
सिरज सकती है यह गीत
स्त्रियाँ ही जिसे संजोकर लाई हैं
इतनी दूर!