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यूँही दिन तमाम गुजर गए / मनोज अहसास

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ही दिन तमाम गुजर गए, यूँही शामें ख़ाली निकल गयी
तेरे फैसले ना बदल सके, मेरी आरज़ू ही बदल गयी

कभी बदगुमानी ने डस लिया,कभी बेबसी ने फना किया
कभी फ़र्ज़ ओ रिश्तों की बंदिशे,मेरी ख्वाइशो को कुचल गयी

यहाँ कुछ नहीं है वफ़ा हया,ये हवस का भूख का सिलसिला
तेरे साथ मैंने जो की कभी,मुझे नेकियां वो निगल गयी

मेरे झुकते कांधे भी मुझमेँ है,तेरे हौसलो का जुनून भी
कोई बात शेरों में ढल गयी,कोई बात आँखों में जल गयी

यही फैसला ना हुआ कभी,के वो कल था सच या है आज सच
यूँ ही बेरुखी में दिमाग की, वो वफ़ा की उम्र निकल गयी