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आँगन की बूढ़ी खाँसी / अवनीश त्रिपाठी
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सही नहीं
जाती है घर को
आँगन की बूढ़ी खाँसी
दरवाजे पर करती रहती
साँसों से प्रतिवाद,
बाँच पोथियाँ ज्ञानी जैसा
करती है संवाद,
दीवारें,खिड़कियां
सीढियां
लेने लगीं उबासी
धोखे में ही बीत गया है
अरसा लम्बा हिस्सा,
बीमारी के दलदल में ही
जीवन भर का किस्सा,
वसा विटामिन
रहित सदा ही
मिलता भोजन बासी
सहयात्री के साथ नया
अनुबन्ध नहीं हो पाया,
छतें,झरोखे,अलगनियों
के साथ नहीं रो पाया
पीड़ाओं का
अंतर भी अब
है घनघोर उदासी