भावना के हिमशिखर से / अंकित काव्यांश
भावना के हिमशिखर से गीत की यमुना
निवेदन कर रही है
मुझे गाओ मुझे गाओ मुझे गाओ
मगर मन अनमना है।
कई वर्षो तक सँजोई उस अभागी
चांदनी पर दोपहर का आवरण है।
हो गयी जाने कहाँ किसकी उपेक्षा
लक्ष्मण सा मूर्छित अंतःकरण है।
द्रोण पर्वत सा हृदय हो यदि तुम्हारा
फिर
तुम्ही संजीवनी बन
चले आओ चले आओ चले आओ
अधूरी चेतना है।
तुम लगाकर छोड़ आईं, आज भी उस
पावनी को अश्रुओं से सींचता हूँ।
कह दिया है दल इसी का होंठ पर हो
जिस समय भी लोचनों को मीचता हूँ।
लौटना तुमको नही है इसलिए ही
देह घाटी में सदा अब
नहीँ जाओ नहीं जाओ नहीं जाओ
यही स्वर गूँजना है।
और कब तक मैं तुम्हे गाता रहूंगा
अब स्वयं ही तुम सम्भालो व्यंजनाएं।
तुम नया उपमान गढ़ दो प्रेम का अब
तोड़कर अलकापुरी की वर्जनायें।
मेघदूतों की प्रथा भी अब नही है
इसलिए तुम मान जाओ
नहीं जाओ चले आओ मुझे गाओ
यही अभ्यर्थना है।