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फिर स्वप्नों की धूप खिली है / रंजना वर्मा
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फिर स्वप्नों की धूप खिली है
झूम उठी मन की तितली है
जगते ख़्वाब खुली आँखों के
क्या उन को ताबीर मिली है
पीर कसकती है फिर मन की
शायद पड़ी खुरंट छिली है
रह न सकेगा आज अँधेरा
राह दिखाती शमा जली है
आशा रहित निराशा नभ में
एक उमंग नयी मचली है
छूट गया दुखमय अतीत भी
बन्द हुई हर एक गली है
तोड़ उदासी की चट्टानें
सुख की एक सरी निकली है