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राजेराम भारद्वाज / परिचय

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आमुख

इस आधुनिकरण के वर्तमान दौर मे सुर्यकवि पण्डित लख्मीचंद व उनकी प्रणाली से सम्बंधित कवियों के भजन व रागनी आज भी हरियाणा व समीपवर्ती क्षेत्रों अर्थात अन्य निकटवर्ती प्रदेशों के लोगों द्वारा बड़े चाव एवं भाव से गाएँ और सुने जाते है। लोक-जीवन व लोक-साहित्य मे उनके व उनकी प्रणाली से सम्बंधित अन्य कवियों जैसी लोकप्रियता एंव ख्याति किन्हीं अन्य लोककवियों को नहीं मिली। फिर भी न जाने क्यों, उनकी प्रणाली के बहुत से लोक-कवियों का 'हरियाणवी लोक-साहित्य' तक प्रमाणिक रूप से प्रकाशित नहीं हो पाया। इस प्रकार उन्हीं लोककवियों मे से एक चर्चित व महान लोककवि है- 'पण्डित राजेराम भारद्वाज संगीताचार्य' जो सुर्यकवि पंडित लख्मीचंद जी के परम शिष्य व सुप्रसिद्ध सांगी श्री मांगेराम, गाँव पाणंछी, जिला सोनीपत वाले के शिष्य है- जिनका लोकरंजक सांग-साहित्य अब तक प्रमाणिक रूप से प्रकाशित नहीं हो पाया। फिर यही अभाव मुझे और पंडित राजेराम काव्य के कायल अनेक लोगों को बहुत अखरता रहा। इसलिए इस अभाव को नष्ट करने के लिए मैंने श्री राजेराम भारद्वाज के संग मिलकर एक योजना बनाई और फिर पंडित राजेराम संगीताचार्य जी की सभी रचनाओं को 'प. राजेराम ग्रंथावली' के रूप मे प्रकाशित करने का निर्णय लिया। उसके बाद फिर उन्होंने इस ग्रंथावली के संकलन/संपादन/प्रकाशन का कार्यभार मुझे सौंपा, जिसे मैंने सहर्ष स्वीकार करके खुद को धन्य माना। इस ग्रंथावली की रूप.रेखा तैयार करने के लिए मैंने काफी लम्बे समय तक अपना चिन्तन व मनन किया, फिर सबसे पहले इस ग्रंथावली की रूप-रेखा मे इसकी सभी रचनाएँ स्वहस्तलिखित के रूप मे संकलित की गई और फिर बाद मे इन्हें स्वहस्तलिखित सम्पूर्णता के बाद कंप्यूटर सेल्फ-टाइपिंग का रूप प्रदान किया गया। अंततः मैं यही सविनय निवेदन करूँगा कि सहर्दय पाठक अपने साधूवादी स्वभाव से इसके सार-सार ग्रहण करे और इसकी त्रुटियाँ हमें बताने मे न हिचकिचाएं, ताकि हम इसके आगामी संस्करण मे उनका समुचित एवं उत्तम सुधार कर सकें।

                                                 सन्दीप कौशिक,
           	अनुक्रमणिका 

अनु. क्र. संकलित सांगों की अनुक्रमणिका

  • आमुख
  • भूमिका
  • जीवनी
  • दृष्टिकोण

1 महात्मा बुद्ध 2 श्री गंगामाई 3 चमन ऋषि-सुकन्या 4 नारद–विश्वमोहिनी 5 कँवर निहालदे-नर सुल्तान 6 सारंगापरी 7 सत्यवान–सावित्री 8 राजा दुष्यंत–शकुन्तला 9 नल–दमयन्ती 10 कृष्ण जन्म 11 कृष्ण लीला 12 रुक्मणि मंगला 13 सरवर-नीर 14 चापसिंह-सोमवती 15 पिंगला–भरथरी 16 गोपीचन्द–भरथरी 17 बाबा जगन्नाथ- लोहारी जाटू धाम 18 बाबा छोटूनाथ- लोहारी जाटू धाम 19 मिरगिरी महाराज- सिकंदरपुरिया 20 काव्य-विविधा

भूमिका

सामान्य मनुष्य की तरह साहित्यकार भी सामाजिक प्राणी है। एक साहित्यकार और सामान्य व्यक्ति में अंतर सिर्फ इतना है कि सामान्य व्यक्ति अनुभव तो करता है, लेकिन उसमें अपने अनुभव को शब्दों में व्यक्त करने की कला नहीं होती है, पर साहित्यकार जो अनुभव करता है, उसे शब्दों में व्यक्त कर सकता है। वास्तव में अभिव्यक्ति की यह कुशलता ही एक साहित्यकार को सामान्य व्यक्ति से अलग करती है। एक सामान्य मनुष्य और लेखक में सिर्फ इतना फर्क होता है कि दोनों ही भरे हुए बादलों की तरह होते हैं। सामान्य मनुष्य बिना बरसे आगे चलता जाता है, पर लेखक खुद को हल्का कर देता है अर्थात् जो अनुभव करता है उसे शब्दों में व्यक्त करता है। जिस समाज और युग में वह जी रहा है, वह समाज और युग उसके व्यक्तित्व को एक विषेष सांचे में ढालता है। भारतीय संस्कृति में रचना और रचनाकार को पृथक नहीं देखा गया है। किसी भी रचना के अंतर्गत को समझने के लिए यह नितांत आवश्यक है कि हम रचनाकार को अच्छी तरह जाने और उसके परिवेश से परिचित हो, तभी हम किसी कृति को पूर्ण रूप से समझ सकेंगे। इसलिए 'पंडित राजेराम जी' के परिवेश को जानने लिए, मै उनके साहित्यिक अनुभव को दर्शाते हुए, उनके सांग 'सरवर-नीर' से एक कृति द्वारा सुपरिचित रचना पर प्रकाश डालना चाहूँगा, जो सरवर-नीर सांग मे निम्नलिखित प्रकार से रचित है।

जवाब – सौदागर का अमली राणी से।

चालै तो मेरी साथ म्य, तनै दुनिया की सैर कराऊं ।। टेक ।।

इंडिया का द्वीप दिल्ली, कानपुर गाजियाबाद, पलवल-होडल शकररोड़ी, शाहजापुर चलैंगे आज, आगरा-बरेली मेरठ, लखनऊ डटै ना जहाज, ऋषिकेश-हरिद्वार अयोध्या, बसरा ओर झांसी देखै, गोकुल-मथुरा ओर मधुबन, बिंदराबण के वासी देखै, बिन्ना-कटनी इलाहाबाद, पिरागराज व कांशी देखै, उडै नहाइए गंगे मात म्य, तनै सेती चाल नुहाऊं ।।

देहरादून-चम्बल घाटी, बनारस भोपाल इंदौर, जबलपुर-ग्वालियर, उज्जैन शहर भी देखां और, बांदीकुई पाणी-तोल्ला, मारवाड पुष्गर-नागौर, जयपुर तै अजमेर देखै, जोधपुर तै जैसलमेर, माधोपुर चितौड़-भरतपुर, कोटा-बूंदी बीकानेर, आबू सुरत और बडोदा, अहमदाबाद चलैंगे फेर, सोमनाथ गुजरात म्य, तनै गांधीधाम पूंहचाऊं ।।

गोरखपुर तै शहर गयाजी, मुगलसरा पटना-बिहार, संभलपुर तै राऊरकेला, कटक और कटिहार, भुवनेश्वतर-जगन्नाकथपुरी, रामेश्वकर और बद्रीकेदार, दमन-दीव गोवा-कर्नाटक, दादरा-हवेली गाम, बंबई सितारा-पूना, कोल्हापुर नै रस्ता आम, नागपुर-भुसावल, नासिक मै रहै थे सीताराम, पंचवटी देहात म्य, तनै चित्रकुट मै ले जाऊं ।।

निकोबार-द्वीप समूह, पांडिचेरी और मद्रास, हैदराबाद-विशाखापटनम, पिलीभीत शहर बिलास, कलकत्ते तै शिल्लीगोड़ी, रंगीया शहर गुहाटी खास, कश्मीर-लद्दाख नेफा-सिंधु, मानसरोवर ताल, पाकिस्तान भुटान-कोरिया, बांग्लादेश और नेपाल, फेर मक्का शरीख-जंजीरा, सिंगलद्वीप दिखाऊं चाल, राख समाई गात म्य, तनै हुरां तै आज मिलाऊं ।।

आस्ट्रेलिया रजान-टोकिया, वियतनाम-बिंदुशाहबाद, हांगकांग फ्रांस-इटली, लंका अरब देश आजाद, फिर काबुल-कंधार एशिया, रुस-चीन बसरा-बगदाद, हेलन-कोलन तुर्की-फिर्की, अमरीका जर्मन-जापान, पैरिस-पिंकी सफरपोलिया, लंदन से ईराक-ईरान, रुमशाम-रंगून देखिए, बर्मा और बिलोचिस्तान, गोरयां की विलात म्य, तनै मैम दिखाके ल्याऊं ।।

शाखा-चिल्ली चौक-डैनिया, झंगशाला विक्टौर देखै, मियांवाली-रावलपिंडी, करांची तै लाहौर देखै, शिमला और संगरुर-भठिंडा, फाजिल्का-आभौर देखै, अमृतसर-जालंधर जम्मू, लुधियाणा फिरोज-पनिहार अंबाला-पटियाला नाभा, बरवाला हांसी-हिसार, जिला-भिवानी तसील-बुवाणी, फेर लुहारी श्रुति धार, उडै गोड़ ब्राह्मण जात म्य, तनै राजेराम दिखाऊ ।।

                                      (सांग:13 ‘सरवर-नीर’ अनु.-20)

साहित्यकार की सर्जन एवं उसके द्वारा रचित साहित्य के मूल व तथ्य को जानने, परखने और उसे गहराई से समझने के लिए यह आवश्यक है कि हम उसके व्यक्तित्व से भली भांति परिचित हो, क्योंकि रचनाकार के व्यक्तित्व तथा रचना में परस्पर वैसा ही संबंध होता है जैसे चंद्र का अपनी रश्मियों से और पुण्य का अपने सौरम्भ से। कवि की श्रेष्ठता उसके व्यक्तित्व के सम्यक् विश्लेषण के बिना हम उनके सर्जक के प्रति पूर्ण न्याय नहीं कर सकते। इसलिए 'प. राजेराम भारद्वाज' की जीवन-गाथा को जो लोग जानते हैं, वे इस बात को अच्छी तरह समझ सकते हैं कि साहित्य मार्ग पे चलने के लिए 14 वर्ष की आयु में घर छोड़कर जाने का दर्द क्या होता है। किसी भी रचनाकार का जन्म उसके क्षेत्र के लिए हर्ष का विषय होता है, क्यूकि कौन जानता है कि आज इस घर में जन्मा नवजात शिशु कल का होने वाला महान् साहित्यकार होगा। 'प. राजेराम भारद्वाज' का जन्म भी इसका अपवाद नहीं है- क्यूकि कोई नहीं जानता था कि जिम्मेदारियों के बोझ तले दबे इस बालक राजेराम में यह प्रतिभा छिपी पड़ी है। उन्होंने अपनी इस साहित्यिक प्रतिभा को स्थापित करने के लिए जो गृह-त्याग का दर्द बचपन मे सहन किया, उसका बखान भी अपनी महानतम साहित्य प्रतिभा के साथ बखूबी किया है। उन्होंने इन तथ्यों का उत्कृष्ट उल्लेख अपने सांग 'सारंगापरी' एवं 'श्री गंगामाई' की रचनाओं मे इस प्रकार उद्घाटित किया है कि-

म्हारे घरक्या तै होई लड़ाई, चाल पडय़ा था एक दिन मै, मांगेराम पाणछी कै म्हां, मिलग्या चौसठ के सन् मै, मान लिया था गुरू अपणा, मनै ज्ञान लिया बालकपण मै, बात पुराणी याद करूं तो, उठै लौर मेरे तन मै, राजेराम जमाना देख्या, घर तै बाहर लिकड़के नै।।

                                       (सांग:2 ‘श्री गंगामाई’ अनु.-15)

लख्मीचंद की जांटी देखण, चाला मोटर-लारी मै, मांगेराम गुरु का पांणछी, देखा सांग दुह्फारी मै, फाग दुलेन्ड़ी के मेले पै, आईये गाम लुहारी मै, राजेराम दिखाऊंगा तनै, कलयुग का अवतारी मै, उड़ै परमहंस जगन्नाथ महात्मा, आवै रोज बसेरे पै।।

                                (सांग:6 ‘सारंगापरी’ अनु.-18)

इसी प्रकार अपनी जन्मजात प्रतिभा और माँ भवानी एवं गुरु के प्रति सच्ची श्रद्दा के साथ निरंतर अभ्यास के कारण वे सरल से सरल प्रसंग को भी इतने विरल रूप मे रचते हैं कि जिसकों सुलझाने के लिए बड़े से बड़े विद्वित मनुष्य भी संशय के संकट मे घिर जाये। जिस तरह एक अनपढ़ कबीर की पहेलियों का निचोड़ निकालना हर मनुष्य के समझ परे है, वैसे ही निरक्षरता के समान संगीताचार्य राजेराम के साहित्यिक ग्रंथियों को हल करने मे बड़े.बड़े विद्वान् एवं आचार्य भी अपनी असमर्थता का प्रकट करते है। इनकी इसी विशेषता को अंकित करते हुए उनकी एक रचना प्रस्तुत करते है, जिसको शास्त्रार्थ हेतु इस प्रकार रचा गया है कि-

कन्या बोली ऋषि मेरे तै, करवाले नै ब्याह, पेट मै करूंगी डेरा, बणकै तेरी मां ।। टेक ।।

मेरा-तेरा एक पिता, और माता एक सै, चौदह विधा वेद-विधि, ज्ञाता एक सै, तू राजऋषि मै ब्रह्मभादवी, नाता एक सै, तीन लोक मै मेरी जोड़ी का, वर चाहता एक सै, अलख-निरंजन दाता एक सै, करणीया सबका न्या।।

मेरा जन्म होया जिब, खुशी मनाई तीन जहान नै, काल बली भी आता था, मनै रोज खिल्हाण नै, अग्नि ल्यावै भोजन, इन्द्र बरसै न्हाण नै, लाड करे थे ब्रहमा जी, और विष्णु भगवान नै, खुशी मनाई शशि-भान नै, करी धूप और छां।।

करके लाड पृथ्वी माता, मनै पाल्या करती, आदरमान मेरा जगदम्बे, ज्वाला करती, पार्वती-ब्रह्माणी-लक्ष्मी, मनै संभाल्या करती, भेमाता-भोई धोरै तै, ना हाल्या करती, चाल्या करती, शिवजी कै भी सिर पै धरके पाँ।।

जोतकलां गंगा-जमना, त्रिवेणी धाम की, चार वेद नै महिमा गाई, मेरे नाम की, होई रवाना, चाहना कोन्या, घर और गाम की, कोए चातर करै विचार, कविता इसी राजेराम की, उसनै पद्वी कवि नाम की, जो भेद खोलै गा।।

                                         (सांग:2 ‘गंगामाई’ अनु.-12)

संक्षिप्त जीवन परिचय:-

पं. राजेराम जी का जन्म 01 जनवरी, सन 1950 ई0 (वार-रविवार, तिथि-त्रयोदशी, मास-पोष, शुक्ल पक्ष- बदी, विक्रम-संवत 2006) को गांव- लोहारी जाटू, जिला- भिवानी (हरियाणा) के एक मध्यम वर्गीय 'गौड़ ब्राह्मण परिवार' मे हुआ। इनके पिता का नाम पं. तेजराम शर्मा व माता का नाम ज्ञान देवी था, जो 30 एकड़ जमीन के मालिक थे और इसी भूमि पर कृषि करके अपने समस्त परिवार का भरण-पोषण करते थे। ये चार भाई थे- जिनमे बड़े का नाम औमप्रकाश, सत्यनारायण, राजेराम, कृष्ण जी। पं. राजेराम 21-22 वर्ष की उम्र में गांव खरक कलां.भिवानी में श्रीमती भतेरी देवी के साथ वैवाहिक बंधन मे बंधकर उन्होंने तीन लडको को जन्म दिया। फिर जब पंडित राजेराम कुछ पढने योग्य हुए तो कुछ समय स्कुल मे भेजकर बाद मे पशुचारण का कार्य सौंपा गया, परन्तु गीत-संगीत की लालसा उनमे बचपन से ही थी। इसलिए ग्वालों-पाळियों के साथ-साथ घूमते हुए, उनके मुखाश्रित से हुए गीतों की पंक्तियों को गुन-गुनाकर समय यापन करते-रहते थे। उसके बाद 10-12 वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते उन्हें कर्णरस एवं गीत श्रवण की ऐसी ललक लगी कि अपने गाँव और आसपास की तो बात ही क्या, वे कोसों-मीलों दूर जाकर भी सांगी-भजनियों के कर्ण-रस द्वारा उनके कंठित भावों का आनंद को अपने अन्दर समाहित करते रहे। फिर उम्र बढ़ने के साथ-साथ सांग के प्रति उनकी आसक्त भावना मे इस प्रकार वृद्धि हुई कि सांग देखने के लिए बिना बताएं और लड़-झगड़कर कई-कई दिनों तक घर से गायब रहने लगे। इस प्रकार सांग से लालायित उनका कुछ जीवन अपने जन्मभूमि से अलगाव मे ही रहा। इन्ही दिनों फिर पंडित राजेराम जी के जीवन मे एक नए अध्याय के अंकुर अंकुरित हुए। सौभाग्य एवं सयोंगवश फिर किशोरायु राजेराम 14 वर्ष की आयु मे सन 1964 मे एक दिन सुबह-सुबह ही बिना बताये घर से सुर्यकवि पंडित लख्मीचंद के परम शिष्य सुप्रसिद्ध सांगी पंडित मांगेराम का सांग सुनने के लिए गाँव-पांणछी, जिला-सोनीपत (हरियाणा) मे ही पहुँच गए, क्यूंकि बचपन से ही गाने-बजाने के शौक के कारण वे पंडित मांगेराम जी के सांगों को सुनने के बड़े ही दीवाने थे। इसलिए बचपन से ही गाने-बजाने चाव एवं लगाव के कारण उस समय के सुप्रसिद्द सांगी पंडित मांगेराम जी के प्रति आकर्षित होना स्वाभाविक था। फिर उस दिन पंडित मांगेराम जी ने सांग-मंचन करते हुए उनकी सरस्वतिमयी कंठ-माधुर्य ने उस किशोरायु राजेराम का ऐसा मन मोह लिया, कि वहीँ पे उन्होंने पंडित मांगेराम जी को अपना गुरु धारण करके उसी समय उनके सांग बेड़े मे शामिल हो गए। फिर पंडित राजेराम एक-दो दिन के बाद वहीँ से गुरु मांगेराम के साथ प्रथम बार उनके सांगी-बेड़े मे शामिल होकर गाँव खाण्डा-सेहरी मे सांग मंचन के लिए चले गए। उस दिन के बाद फिर गुरु मांगेराम ने अपने शिष्य बालक राजेराम की उम्र के लिहाज से उनकी जबरदस्त स्मरण शक्ति एंव सांगीत कला की मजबूत पकड़ को देखते हुए उन्होंने अपनी गुरु कृपा से बहुत जल्द ही इस साहित्यिक कला मे निपुण कर दिया। फिर अपने गुरु मांगेराम की इस बहुत ही सहजता एवं कोमल हर्दयता को देखकर अपनी गीत-संगीत की प्यास को बुझाने हेतु वे अपने गुरु मांगेराम जी के साथ ही रहने लगे। उसके बाद उन्होंने 6 महीने तक पूरी निष्ठां एवं श्रद्धा से गुरु की सेवा करके गायन-कला मे प्रवीण होकर ही अपनी इस सतत साधना और संगीत की आत्मीय पिपासा को पूरा किया। इस प्रकार फिर गुरु मांगेराम के सत्संग से शिष्य राजेराम भारद्वाज अपनी संगीत, गायन, वादन और अभिनय कला मे बहुत जल्द ही पारंगत हो गए। इस प्रकार पं0 राजेराम लगभग 6 महीने तक गुरु मांगेराम के संगीत-बेड़े में रहे। उसके बाद प्रथम बार इन्होंने भजन पार्टी सन् 1978 ई0 से 1980 तक लगभग 3 वर्ष रखी। फिर वे किसी कारणवश अपने भजन-पार्टी को छोड़ गए, परन्तु साहित्य रचना और गायन कार्य शुरू रखा, जिसकों उन्होंने इस कार्य को आज तक विराम नहीं दिया।

  • व्यक्तित्व*

पंडित राजेराम भारद्वाज एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। उनके एक घनिष्ठ प्रेमी एवं कला के कायल डॉ॰ शिवचरण शर्मा (जो सर्वप्रथम प्रकाशित 'हरियाणा के कविसुर्य लख्मीचंद' पुस्तक के संपादक श्री के.सी. शर्मा- आई.ऐ.एस. ऑफिसर के छोटे सगे भाई है) जो गाँव लोहारी जाटू, भिवानी (हरियाणा) निवासी है, जिनको स्वयं सन 1991 मे हरियाणा लोक साहित्य पर पी.एच.डी. करने का गौरव प्राप्त हैं। उन्होंने पंडित राजेराम के संबंध मे कितना ही उचित कहा है कि जो पंडित राजेराम को एक साधारण कवि या सांगी समझते है, वे अल्पबुद्धि जीव है। वे केवल एक सशक्त कवि और सांगी ही नहीं, अपितु एक बहुत ही साधारण व्यक्तित्व के साथ-साथ एक अदभुत साहित्य एवं संगीत कला के, इस हरियाणवी लोक-साहित्य मे बहुत बड़े सहयोगी भी है, जो इस आधुनिक युग के नवकवियों के लिए एक जीवन्त मिशाल है। पंडित राजेराम गोरे रंग के साथ-साथ एक लम्बे-ऊँचे कद के धनी है और दूसरी तरफ इनकी वेशभूषा धोती-कुर्ता व साफा (तुर्हे वाला खंडका) प्रतिभा में चार चांद लगा देती है। इनका सादा जीवन व रहन-सहन एक अमूल्य आभूषण हैं, जो इतने प्रतिभावान होते हुए भी साधुवाद की तरह जरा-सा भी अहम भाव नहीं है। उनका यह साधुवाद चरित्र हम उनकी निम्नलिखित कुछ पंक्तियों मे देख सकते है।

मानसिंह तै बुझ लिए, मै इन्सान किसा सूं, लख्मीचंद तै बुझ लिए, मै चोर लुटेरा ना सूं, मांगेराम गुरु कै धोरै, रोज पांणछी जा सूं, दुनिया त्यागी होया रुखाला, मै हस्तिनापुर का सूं, राजेराम राम की माला, रटता शाम सवेरी।।

                                      (सांग:2 ‘श्री गंगामाई’ अनु.-26)

लख्मीचंद स्याणे माणस, गलती मै आणिये ना सै, मांगेराम गुरू के चेले, बिना गाणिये ना सै, ब्राहम्ण जात वेद के ज्ञाता, मांग खाणिये ना सै, तू कहरी डाकू-चोर, किसे की चीज ठाणिये ना सै, राजेराम रात नै ठहरा, ओं म्हारा घर-डेरा हे।।

                         (सांग:3 ‘चमन ऋषि-सुकन्या’ अनु.-15)

लख्मीचंद तै बूझ लिए, ठिक ठिकाणे आला सूं, मांगेराम गुरू का चेला, ना कम गाणे आला सूं, ठाढ़े का दुश्मन हीणे का, साथ निभाणे आला सूं, गैरा के दुख दूर करणियां, बात बताणे आला सूं, राजेराम प्रेम का बासी, नहीं तनै देख्या भाला।।

                           (सांग:5 ‘कंवर निहालदे-नर सुल्तान’ अनु.-34)

साहित्यिक रूचि:-

वैसे तो पं. राजेराम की शिक्षा प्रारम्भिक स्तर तक ही हो पाई थी और प्रारम्भ में खेती-बाड़ी का काम किया करते थे तथा गांव लोहारी जाटू में अपने गुजारे लायक ही जमीन-जायदाद थी, परन्तु अनपढ़ता के दौर मे फंसे पंडित राजेराम शैक्षिक योग्यता पाने मे असमर्थ रहे, जिसका जिक्र उन्होंने अपनी एक रचना की कुछ पंक्तियों मे इस क़द्र किया है- कि

सुपनै जैसी माया तेरी, पागल दुनिया सारी सै, निराकार साकार दिखै, सब मै तू गिरधारी सै, कृष्ण-2 रटै गोपनी राधे, या कृष्णलीला न्यारी सै, 6 राग और तीस रागणी, वेद दुनी सब गारी सै, राजेराम नहीं पढ़रया सै, किसी रागनी गा जाणै।।

                                      (सांग:11 ‘कृष्ण-लीला’ अनु.-22)

पंडित राजेराम निरक्षरता के युग मे एक हाली-पाली रहते हुए भी उनमे प्रतिभा का गुण तो जन्मजात था ही और साथ-साथ उनकी सच्ची लगन एवं कठोर परिश्रम मे भी कोई कसर नहीं थी, जो किसी भी अच्छे कलाकार मे होना एक स्वाभाविक है। उनका लगभग पूरा जीवनक्रम उनकी जन्म एवं मातृभूमि लोहारी जाटू, जिला भिवानी के निकटवर्ती स्थानों हरियाणा मे व्याप्त रहा। जिसका उल्लेख उन्होंने अपनी एक अदभुत कृति 'प्रकृति कहर, के रूप मे सन 1995 मे हरियाणा की प्राकृतिक आपदा के संबंध मे निम्नलिखित प्रकार किया है।

           *हरियाणे की सन 1995 की एक सच्ची दास्ताँ*

जमाने भोई बड़ी बलवान, भोई अपणे बळ चालै तो, के करले इंसान ।। टेक ।।

95 के संन् मै आई, बाढ़ का सुणाऊं हाल, साढ़ के म्हां बरस्या कम, सामण मै उतराधी बाल, भादुऐ की चौथ पूर्वा, मोहन-सोहन पड़ी चाल, जन्माष्टमी गूगानौमी, बरसण लाग्या मूसलधार, ईख-बाड़ी धान डोबे, बाजरा मक्की-ज्वार, छत्तीस घण्टे वर्षा होई, घबरागे जमींदार, फेर पाट्टे बहुत मकान, जमाने भोई बड़ी बलवान ।।

बुवाणी-मिलकपुर खेड़ी, हांसी और ढाणा गाम, पेटवाड़ नारनौंद-माजरा, कुम्भा और थूराणा गाम, रामरा-पिण्डारा डूब्या, बिबिपुर-धमाणा गाम, कुंगड़-भैणी पुर-लुहारी, तिगड़ाणा-मिताथल, चांग-शिसर गुजराणी, सै-रिवाड़ी और सांपल, खरक-बाम्बळा कलानौर, किलैंगा भी चढ़या जल, देख्या बे-उनमान, जमाने भोई बड़ी बलवान ।।

बड़ाळा हिण्डोल-सांगा, बौंद सांवड़-सांजरवास, राणीला-ढराणा चिमनी, चीणा-मिश्री कोल्हावास, दूबलधन बराहणा-गोच्छी, सिवाणा-ढिघल भूरावास, जहाजगढ़ करोथा-मान्हां, रौध-सांपला अस्थल-भौर, रोहतक और सुनारी डोबी, दुजाणा बेरी-कान्हौर, खरकड़ा बलम्भा-महम, मौखरा-मदीणा और, डोबी जाब-भराण, जमाने भोई बड़ी बलवान ।।

निंदाणा-फरवाणा बैसी, खुडाली सांघी-घड़वाल, सिंहपुरा निडाणा-सामड़, गांधरा बहूँ-अटाल, चांदी-चिड़ी गोहाणा, डूब्या पानीपत-करनाल, जुलाणा-धनाणा पोली, हथवाला-ब्राहमणवास, शामलो-गितौली छपरा, जींद खेड़ी-खाण्डावास, सोरखी मुंढ़ाल-तालू, भिवानी और हलवास, डूबी कोट-निंदाण, जमाने भोई बड़ी बलवान ।।

दादरी-ढिगावा चरखी, जूई और लुहाणी गांम, उमरवास बाढ़ड़ा-गोपी, झोंझू और चिनाणी गांम, बिघोवा.भिरोड़ भाघी, भादरा और छानी गांम, गुड़गांवा-रिवाड़ी डोबी, लुहारू-पिलाणी शहर, बहल-झूप्पा सतनाली, महेन्द्रगढ़ मै तोल्या कहर, टिब्या मै भी बाढ़ आई, राम जी की फिरगी लहर, डोब्या राजस्थान, जमाने भेाई बड़ी बलवान ।।

जल और जंगल एक देख्या, डोळे-नाक्के दिए तोड़, गांमा मै भी पाणी चढ़याए छाल दिए कूंए-जोहड़, मोटर-तांगे बंद होए, टूट गऐ जी.टी. रोड़, जीतपुरा-निमड़ीवाली, नवा-धिराणा नंदगांम, देवसर-दिणोदं ढाणी, बापोड़ा-बिरण तोशाम, सारै चढ़या जल देख्या, सहम गया राजेराम, या तेरी माया भगवान, जमाने भोई बड़ी बलवान ।।

                                  (काव्य विविधा: अनु.-20)                                   

परन्तु निरक्षरता के ज़माने मे शैक्षणिक योग्यता से अछूते रहे पंडित राजेराम को बचपन से ही गाने-बजाने का शोक था और उस समय के प्रसिद्ध संगीतकार सुर्यकवि पंडित लखमीचंद प्रणाली के कवि शिरोमणि पंडित मांगेराम जी के प्रति आकर्षित होना स्वाभाविक ही था। उसके बाद फिर तो वे एक दिन सन् 1964 में प्रसिद्ध सांगी एवं गुरु पंडित मांगेराम जी के साहित्य-गायन कला का रसपान करने के लिए सीधे गुरु धाम गाँव पाणंछी-सोनीपत मे मात्र 14 वर्ष की अल्पआयु में बिना बताए घर से चले गए तथा उनके सांग में जा मिले, क्योकि वे पं0 मांगेराम के सांग सुनने के बड़े ही दिवाने थे। पं0 राजेराम जी को उनका सांग सुनते हुए उस दिन ऐसा रंग चढ़ा, कि उनको अपना गुरू ही धारण कर लिया। उन्होंने अपनी इस साहित्यिक रूचि का उल्लेख बारम्बार अपनी अनेकों रचनाओं मे किया है, जिनके कुछ उदाहारण निम्नलिखित पंक्तियों के रूप मे प्रस्तुत है-

म्हारे घरक्यां तै होई लड़ाई, चाल्या उठ सबेरी मै, सन् 64 मै मिल्या पांणछी, मांगेराम दुहफेरी मै, न्यूं बोल्या तनै ज्ञान सिखाऊ, रहै पार्टी मेरी मै, तड़कै-परसूं सांग करण नै, चाला खाण्डा-सेहरी मै, राजेराम सीख मामुली, जिब तै गाणा लिया मनै।।

                                     (सांग:11 ‘कृष्ण-लीला’ अनु.-13)

लख्मीचंद बसै थे जांटी, ढाई कोस ननेरा सै, पुर कै धोरै गाम पाणंछी, म्हारे गुरु का डेरा सै, पुर कै धोरै हांसी रोड़ पै, गाम लुहारी मेरा सै, राजेराम कहै कर्मगति का, नही किसे नै बेरा सै, 20 कै साल पाँणछी के म्हा, म्हारे गुरु नै ज्ञान दिया ।।

                           (सांग:-17 ‘बाबा जगन्नाथ’ अनु.-5)

मानसिंह तै बुझ लिए, साधू बाणा कठिन होगा, लख्मीचंद तै बुझ लिए, सुर मै गाणा कठिन होगा, मांगेराम तै बुझ लिए, मांगके खाणा कठिन होगा, हाथ के म्हा झोली-चिमटा, कांधै ऊपर काम्बल काला, पन्मेशर का भजन करिए, एक तुलसी की लेके माला, तेरा इतिहास लिखै, राजेराम लुहारी आला, इसी कविताई है ।।

                             (सांग:-18 ‘बाबा-छोटूनाथ’ अनु.-7)

पं0 राजेराम लगभग 5-6 महीने गुरु मांगेराम के सांगीत बेड़े में रहे। उसके बाद उन्होंने गुरु मांगेराम जी से हरियाणवी लोक साहित्य एवं संगीत की शिक्षा-दीक्षा लेने के बाद प्रथम बार अपनी भजन पार्टी सन् 1977-978 ई0 मे बनायीं, जो सन 1977-1978 ई. से 1980-1981 ई. तक लगभग 4-5 वर्ष रखी। फिर 4-5 साल के बाद पारिवारिक परिस्थितियों के बोझ कारण वे अपना साहित्यिक मंचन छोड़ गए, परन्तु इन्होने अपना साहित्य रचना और गायन कार्य शुरू रखा, जिसकों उन्होंने इस कार्य को आज तक विराम नहीं दिया। उन्होंने अपने इस सांगीत बेड़े एवं भजन पार्टी के गठन का उल्लेख भी अपनी कुछ निम्नलिखित पंक्तियों मे इस प्रकार दर्शाया है- कि

कर्जा उधार लिया, देणा मूल ब्याज करके, देणै कै बख्त रोवै, पिछ्तावा नाजाज करके, राजेराम लुहारी आला, गावै अपणा साज करके, रोवै टक्कर मार जणू, साहुकार जा लिकड़ दिवाले।।

                          (सांग: 7 ‘सत्यवान-सावित्री’ अनु.-28)

स्याणे माणस के करया करै, गलती आले काम, मुर्ख माणस होया करै, सै दुनिया मै बदनाम, बुरे काम तै हो बदनामी, जाणै देश-तमाम, राजेराम ब्राहम्ण कुल मै, खास लुहारी गाम, विरुद्ध पार्टी साज ओपरा, उडै़ गाया ना करूं ।।

                           (सांग:-15 ‘पिंगला-भरथरी’ अनु.-14)

फिर सांग मंचन को छोड़ने के बाद वे दोबारा गृहस्थ जींवन मे व्यस्त हो गये और साथ-साथ अपनी साहित्यिक प्रतिभा को भी आगे बढाते चले गये, क्यूकि इनमे स्मरण शक्ति एवं सांगीत कला की पकड़ इतनी जबरदस्त है कि इनके स्वरचित साहित्य मे से किसी भी समय, कहीं से भी, कुछ भी और किसी तरह की रचना के बारे मुखाश्रित पूछ सकते है और वे उनका जवाब उसी समय बिना किसी बाधा के बड़ी आसानी से देते है। इसी आत्मीय बल एवं ज्ञान और स्मरण शक्ति के कारण ही ये गृहस्थ जीवन मे अपार जिम्मेदारियों के साथ व्यस्त होकर भी एक साधारण मनुष्य की जीवनयापन करते हुए अपने इस साहित्य को उच्चकोटि तक पहुंचाकर उन्होंने अपना साहित्यिक परिचय दिया।

साहित्य रचना की प्रेरणा एवं प्रभाव:-

मेरे विचार से प्रेरणा और उत्साह मनुष्य के हाथ में वे हथियार हैं जिनके सहारे मनुष्य अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है और सभी जानते है कि अधिकतर प्रेरणा रूपी ये हथियार बाहर से ही मिलते है। फिर कविराज पंडित राजेराम ने भी इन्ही हथियारों के साक्ष्य कुछ निम्नलिखित पंक्तियों मे इस प्रकार दिए है- कि

राजेराम उम्र का बाला, मिलग्या गुरू पाणछी आला, ताला दिया ज्ञान का खोल, किया मन का दूर अंधेरा सै, ज्ञान की लेरया चाबी री ।।

                                    (सांग:-15 ‘पिंगला-भरथरी’ अनु.-5)

चौबीसी के साल बणी, रागणी तमाम, गाम हमारा लुहारी सै, जमीदारा काम, पांणछी सै पुर कै धोरै, गुरू जी का धाम, अवधपुरी का राजा सूं, शर्याति मेरा नाम, कहै राजेराम माफ करदे, सुकन्या दूंगा ब्याह ।।

                          (सांग:3 ‘चमन ऋषि-सुकन्या’ अनु.-8)

मानसिंह कै हर्दय बस्या, सच्चा भगवान बणकै, लख्मीचंद कै हर्दय बस्या, सच्चा ब्रह्मज्ञान बणकै, मांगेराम कै हर्दय बस्या, साधु पौहंचवान बणकै, लुहारी मै रहया बाबा, दर्शन देंगे जगन्नाथ, मिरगिरी नाम पडय़ा, गौड़ सै ब्राहम्ण जात, ब्रह्मरूप अग्नि मुख, कंठ पै सरस्वती मात, राजेराम सिकंदरपुर मै, जाकै डेरा लाया ।।

                           (सांग:19 ‘मीरगिरी महाराज’ अनु.-1)

ठीक उसी प्रकार कवि राजेराम जी भी भाग्यशाली थे क्योंकि उन्हें ये प्रेरणा रूपी हथियार अपने ही राज्य के उनके गुरु प्रसिद्ध सांगी कवि शिरोमणि पंडित मांगेराम जी, गाँव-पांणछी, जिला सोनीपत वाले से मिले, जो गंधर्व अवतार सुर्यकवि पंडित लख्मीचंद, गाँव जांटी, जिला सोनीपत वाले के शिष्य थे। अब मै यहाँ उनकी कुछ रचनाओं के अनुसार उनके इन प्रेरणा रूपी मोतियों की कुछ झलक प्रस्तुत कर रहा हूँ जो निम्नलिखित है।

कहै राजेराम कंस तनै मारै, तू कन्या याणी होज्यागी, भद्रा काली चण्डी दुर्गे, मात भवानी होज्यागी, अष्टभुजी तू रूप धारकै, जग की कल्याणी होज्यागी, दुनिया पूजै लखमीचंद की, साची वाणी होज्यागी, गुरू मांगेराम कहया करते, कदे गाम लुहारी आऊंगा।।

                              (सांग:10 ‘कृष्ण-जन्म’ अनु.-18)

मानसिंह नै सुमरी देबी, धरणे तै सिखाए छंद, लखमीचंद नै सुमरी देबी, सांगी होये बेड़े बंद, मांगेराम नै सुमरी देबी, काट दिए दुख के फंद, शक्ति परमजोत, करूणा के धाम की, बेद नै बड़ाई गाई, देबी तेरे नाम की, राखदे सभा मै लाज, सेवक राजेराम की, शुद्ध बोलिए वाणी री, सबनै मानी शेरावाली री ।।

                                   (काव्य विविधा: अनु.-2)

मानसिंह तै बुझ लिये, औरत सूं हरियाणे आली, लख्मीचंद तै बुझ लिये, गाणे और बजाणे आली, मांगेराम तै बुझ लिये, गंगा जी में नहाणे आली, भिवानी जिला तसील बुवाणी, लुहारी सै गाम मेरा, कवियां मै संगीताचार्य, यो साथी राजेराम मेरा, मै राजा की राजकुमारी, सुकन्या सै नाम मेरा, कन्या शुद्ध शरीर सूं, च्यवन ऋषि की गैल, ब्याही भृंगु खानदान मै ।।

                          (सांग:3 ‘चमन ऋषि-सुकन्या’ अनु.-14)

मांगेराम पाणछी मै रहै, था गाम सुसाणा, कहै राजेराम गुरू हामनै, बीस के साल मै मान्या, सराहना सुणकै नै छंद की, खटक लागी बेड़े-बंद की, लख्मीचंद की प्रणाली का, इम्तिहान हो गया ।।

                                (सांग:3 ‘चमन ऋषि-सुकन्या’ अनु.-24)

इसी कारण साहित्य लेखन व मंचन की कला पंडित राजेराम जी की प्रणाली में ही विद्यमान थी, बस जिसे पवित्र, प्रेरणादायक और प्रभावशाली शीतल हवा के एक झोंके की जरूरत थी और वो झोंका दिया इनके गुरु श्रेष्ठ प्रसिद्ध सांगी कवि शिरोमणि पंडित मांगेराम जी ने सन 1964 मे। इस प्रेरणा रूपी झोंके का उल्लेख उन्होंने अपनी बहुत सी रचनाओं मे उद्घाटित किया है जो निम्नलिखित रूप मे प्रस्तुत है।

राजेराम झंग झोया, मांगेराम पाणछी टोह्या, होया सांगी बड़ा मशहूर, मिल्या था 64 के सन् मै, गौड़ ब्राहमण जात मै ।।

                                      (सांग:13 ‘सरवर-नीर’ अनु.-5)

मांगेराम पाणछी मै गया फेट, 20 कै साल मनै, होए वर्ष 20 जणूं बात काल की, न्यूं आवै सै ख्याल मनै, कीचक बणकै पास बुलावै, उस द्रोपद की ढाल मनै, राजेराम रट्या गिरधारी, वो कृष्ण गोपाल मनै, महाराणा भी के जाणै था, सत की मीराबाई नै।।

                                                  (सांग:13 ‘सरवर-नीर’ अनु.-19)

राजेराम कद गाणा सिख्या, न्यूं बुझै दुनिया सारी, बीस कै साल पाणछी मैं, देई गुरू नै ज्ञान पिटारी, हांसी रोड़ पै गाम लुहारी, भिवानी शहर जिला ।।

                                (सांग:3 ‘चमन ऋषि-सुकन्या’ अनु.-11)

अतः कहते है कि प्रत्येक मनुष्य में कोई न कोई रुचि अवश्य होती है जो कि उसे अपना समय व्यतीत करने में सहायता करती है। इसलिए साहित्य रचना और सांग मंचन पंडित राजेराम की मुख्य रुचि मे शुमार है। वैसे तो उनकी ये रूचि उनके स्वरचित सम्पूर्ण हरियाणवी लोक साहित्य/स्वरचित ग्रंथावली मे देख सकते है, उसके बावजूद भी हम उनकी साहित्य के रूप मे मुख्य रूचि की कुछ निम्नलिखित भिन्न-भिन्न रचनाओं की कुछ पंक्तियाँ समक्ष रखना चाहेंगे, जो इस प्रकार है-

इन्द्रगढ़ तै चलकै आया, शिखर दुहफेरी घाम, घोड़ा बांध दिया बागां मै, करणे लग्या विश्राम, फूलसिंह नै करी लड़ाई, कर दिया मै बदनाम, भिवानी जिला तसील बुवाणी, खास लुहारी गाम, राजेराम, तेरे आगै बालक सूं काल का ।।

                           (सांग:5 ‘कंवर निहालदे-नर सुल्तान’ अनु.-7)

मारूं नै भी सांस सेधै, मुहं दरगाह मै होगा काला, ढ़ोल राजा की बदनामी, मारूं नै यो रोप्या चाला, जलके नै मरूंगी पिया, पिहर मै सती की ढाला, पाणछी का रहणे आला, गुरू मांगेराम जिसका, भिवानी जिला तसील बुवाणी, खास लुहारी गाम जिसका, ब्राह्मण कै जन्म लिया, कवियां मै नाम जिसका, समरै दुर्गे धाम, यो राजेराम, करै कविताई ।।

                           (सांग:5 ‘कंवर निहालदे-नर सुल्तान’ अनु.-35)
                  

सोनीपत की तरफ ननेरे तै, एक रेल सवारी जा सै, जांटी-पाणची म्हारे गुरू की, मोटर-लारी जा सै, दिल्ली-रोहतक भिवानी तै, हांसी रोड़ लुहारी जा सै, पटवार मोहल्ला तीन गाल, अड्डे तै न्यारी जा सै, राजेराम ब्राहम्ण कुल मै, बुझ लिए घर-डेरा ।।

                           (सांग:5 ‘कंवर निहालदे-नर सुल्तान’ अनु.-29)

गुरु महिमा:-

गुरु यानी शिक्षक की महिमा अपार है। उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता, क्यूंकि माता-पिता तो हमारे जन्म के साथी है, न की कर्म के साथी | वास्तव मे हमारे सही हिमाती तो सदगुरू ही है जो हमारी ज्ञान ज्योति को प्रज्वलित करते है | वेद, पुराण, उपनिषद, गीता, कवि, सन्त, मुनि आदि सब गुरु की अपार महिमा का बखान करते हैं। इसलिए उपरोक्त सभी ने गुरु की समता को इस प्रकार स्थापित किया है- कि

दोहा:- गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।

    गुरूर्साक्षात परंब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

अर्थात, गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है। गुरु ही साक्षात परब्रह्म है। ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूँ।

इस प्रकार हरियाणा के सभी सांगी, कवि, या रचनाकार गुरु-वन्दना से ही अपनी कला-कृतियों का प्रदर्शन प्रारंभ करते है | इसलिए पंडित राजेराम ने भी पदे-पदे गुरु को स्मरण किया हैA उन्होंने अपने लोक साहित्य मे गुरु भक्ति को इस प्रकार सर्वश्रेष्ठ दर्शाया है कि जैसे नदियों मे गंगा, मंत्रो मे गायत्री मंत्र, पक्षियों मे बाज, पशुओं मे शेर, फूलों मे पुष्पराज गुलाब, फलों मे आम, आदि को श्रेष्ठ माना जाता हैA इसलिए उन्होंने गुरु की श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए साक्ष्यार्थ सांगों की निम्नलिखित भिन्न-भिन्न पंक्तियों मे कितना सटीक प्रस्तुत किया है-

ईब रट गोबिंद पार होज्यागी, लख्मीचंद की बण दासी, मांगेराम गुरू का पाणछी, लिए धाम समझ कांशी, कवियां मै संगीताचार्य, गांव लुहारी का बासी, कथ दिया सांग महात्मा बुद्ध का, बणी रागणी फरमासी, दुनिया चांद पैै गई, तू क्यूँ रहग्या राजेराम अंधेरे मै।।

                              (सांग:1 ‘महात्मा बुद्ध’ अनु.-36)

मानसिंह ना दया-धर्म का बेरा, लख्मीचंद ना ल्हाज-शर्म का बेरा, गुरू मांगेराम नै म्हारे मर्म का बेरा, राजेराम ना तनै ब्रह्म का बेरा, तनै ब्रह्म सताया, बणकै अत्याचारी।।

                              (सांग:10 ‘कृष्ण-जन्म’ अनु.-27)

राजेराम क्वाली, गावै तर्ज निराली, गुरू मांगेराम रूखाली, लख्मीचंद की प्रणाली, ब्रहमज्ञान धरया शीश पै सेहरा सै, होग्या दिल मै दूर जो मेरा अंधेरा सै ।।

                              (सांग:11 ‘कृष्ण-लीला’ अनु.-10)

शास्त्रों में ‘गु’ का अर्थ ‘अंधकार या मूल अज्ञान’ और ‘रू’ का अर्थ ‘उसका निरोधक’ बताया गया है, जिसका अर्थ ‘अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला’ अर्थात अज्ञान को मिटाकर ज्ञान का मार्ग दिखाने वाला ‘गुरु’ होता है। गुरु को भगवान से भी बढ़कर दर्जा दिया गया है अर्थात, सात द्वीप, नौ खण्ड, तीन लोक, इक्कीस ब्रहाण्डों में सद्गुरु के समान हितकारी आप किसी को नहीं पायेंगे, क्यूंकि गुरु एक कुम्हार के समान है और शिष्य एक घड़े के समान होता है। जिस प्रकार कुम्हार कच्चे घड़े के अन्दर हाथ डालकर, उसे अन्दर से सहारा देते हुए हल्की-हल्की चोट मारते हुए उसे आकर्षक रूप देता है, उसी प्रकार एक गुरु अपने शिष्य को एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व में तब्दील करता है।

पंडित राजेराम अपने गुरु के प्रति बहुत ही श्रद्धान्वित है और उन्होंने अपने सामाजिक जीवन एवं साहित्यिक जीवन दोनों मे ही ‘गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः’ के प्रमुख मंत्र को जगह-जगह प्रतिष्ठापित किया हैA वे अपने काव्य के अन्दर तो समय-समय पर अपने गुरु को श्रद्धा-सुमन समर्पित करने से नहीं चूकते हैA उन्होंने अपने अन्तर्मन की भावना को काव्य के अन्दर इस प्रकार अभिव्यक्त किया है- कि

राजेराम उम्र का बाला, मिलग्या गुरू पाणछी आला, ताला दिया ज्ञान का खोल, किया मन का दूर अंधेरा सै, ज्ञान की लेरया चाबी री।।

                                (सांग:15 ‘पिंगला-भरथरी’ अनु.-5)

राजेराम रट दूर्गे माई, बिना उसाण मिलै ना, मोहमाया मै फंस्या भरथरी, पिंगला जिसी डाण मिलै ना, बिना गुरू कदे ज्ञान मिलै ना, चाहे तीन लोक मै फिरले।।

                                   (सांग:15 ‘पिंगला-भरथरी’ अनु.-32)

लख्मीचंद की जांटी देखी, आके दुनियादारी मै, फेर उड़ै तै गया पाणंछी, बैठके मोटर-लारी मै, वा जगाह ध्यान मै आई कोन्या, देख्या सांग दोह्फारी मै, राजेराम घूमके सारै, फेर आया गाम लुहारी मै, मनै सारै टोह्या किते पाया, मांगेराम जिसा गुरु नहीं ।।

                             (सांग:17 ‘बाबा-जगन्नाथ’ अनु.-7)

कहै राजेराम तेरी मै, दुर्गे विनती करूं, बात का गालिम सा भरज्या, इसे मै काफिऐ धरूं, मांगेराम गुरूं मिलज्या, पायें लागू शीश झुका, आ समरूं मात भवानी री, दिए दर्श दिखा ।।

                                   (काव्य विविधा: अनु.-3)

मांगेराम गुरु का पाणंछी, ल्यूं धाम समझ कांशी मै, देख्या भाला कृष्ण-काला, तेरा श्याम ब्रजबासी मै, छः चक्र दस दिशा बताई, एक माणस की राशि मै, राजेराम नै जोड़ रागनी, गाई सन् छ्यासी मै, लख्मीचंद की प्रणाली कै, गावण का सिर-सेहरा ।।

                                  (काव्य विविधा: अनु.-11)

पंडित राजेराम जी ने भी गुरु को भगवान से भी श्रेष्ठ माना है अर्थात भले ही कोई ब्रह्मा, शंकर के समान क्यों न हो, वह गुरु के बिना भव सागर पार नहीं कर सकता, क्यूंकि गुरु मनुष्य रूप में नारायण ही हैं। मैं उनके चरण कमलों की वन्दना करता हूँ। जैसे सूर्य के निकलने पर अन्धेरा नष्ट हो जाता है, वैसे ही उनके वचनों से मोहरूपी अन्धकार का नाश हो जाता है। गुरु हमारा सदैव हितैषी व सच्चा मार्गदर्शी होता है। वह हमेशा हमारे कल्याण के बारे में सोचता है और एक अच्छे मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। गुरु चाहे कितना ही कठोर क्यों न हो, उसका एकमात्र ध्येय अपने शिक्षार्थी यानी शिष्य का कल्याण करने का होता है। गुरु हमें एक सच्चा इंसान यानी श्रेष्ठ इंसान बनाता है। हमारे अवगुणों को समाप्त करने की हरसंभव कोशिश करता है। इस सन्दर्भ में कविराज ने लाजवाब अन्दाज में कहा है:

राजेराम फंसी माया मै, दुनिया पागल होरी सै, धनमाया संतान-स्त्री, माणस की कमजोरी सै, समझदार हाकिम नै भी, डोबै रिश्वत खोरी सै, मांगेराम बताया करते, एक फांसी मोह की डोरी सै, लख्मीचंद कै उठ्या करती, वाहे खांसी होज्यागी।।

                                      (सांग:13 ‘सरवर-नीर’ अनु.-3)

वसुदेव- मानसिंह बसौदी आला, सिखावण नै छंद आग्या,

          गंधर्वो मै रहणे वाला, पंडित लख्मीचंद आग्या,
          मांगेराम गुरू काटण नै, विपता के फंद आग्या,

देवकी- भिवानी जिला तसील बुवाणी, खास लुहारी गाम पिया,

          भारद्वाज ब्राहमण कुल म्यं, जन्में राजेराम पिया,
          भगतो का रखवाला आग्या, बणकै सुन्दर श्याम पिया,
                                       (सांग:10 ‘कृष्ण-जन्म’ अनु.-21)

मेरी-तेरी शादी की, गुंठी एक निशानी होगी, वचन भरे हस्तिनापुर की, शकुन्तला राणी होगी, धोखा दिया पिया मै, ठोकर खाकै स्याणी होगी, मांगेराम गुरु कै आगै, या बात बताणी होगी, कहै राजेराम भूल मै बैठ्या, दुनिया चाँद पै जा ली ।।

                                (सांग:8 ‘राजा दुष्यंत-शकुन्तला’ अनु.-19)

इस प्रकार कविराज पंडित राजेराम ने भी अपने गुरु को उस ईश्वर का अंश मानकर गुरु मांगेराम जी की स्मृति मे बारम्बार श्रद्धा सुमन समर्पित किये है। उनके साक्ष्यार्थ सांगों की कुछ मुख्य पंक्तिया निम्नलिखित मे प्रस्ततु है-

लखमीचंद तेरा नाम रटै, तनै तै मांगेराम रटै, तमाम रटै दुनियादारी, दूर कर दिल का अंधेरा, सभा मै मान राख मेरा, तेरा रहैगा पूजारी, गाम लुहारी आला री, सेवक राजेराम तेरा, सर पै हाथ टीकाज्या, माई दर्शन दिखा ।।

                            (सांग:7 ‘सत्यवान-सावित्री’ अनु.-2)

जहाज देखणे चाल तावली, छोड़ सराह का काम, सौदागर साहुकार सेठ का, मोतीशाह सै नाम, लख्मीचंद गुरू मांगेराम नै, जाणै देश तमाम, भिवानी जिला तसील बवानी खेड़ा, खास लुहारी गाम, राजेराम, ब्राहमण भारद्वाज मै बहूँ ।।

                                  (सांग:7 ‘सत्यवान-सावित्री’ अनु.-14)

राजेराम बता के थारे नाम थे, शिव के सेवक सुबह-शाम थे, लखमीचंद और मांगेराम थे, वर्ण के ब्राह्मण दोनूं ।।

                                  (सांग:4 ‘नारद-विश्वमोहिनी’ अनु.-24)


राजेराम लुहारी आला, रटता रहिए मात ज्वाला, मांगेराम गुरू की ढाला, मशहुर भी होज्याया करै, सिख्या सांग आशकी मै, कोए मगरूर भी होज्याया करै ।।

                              (सांग:8 ‘राजा दुष्यंत-शकुन्तला’ अनु.-29)

लख्मीचंद करै थी पिंगला, बेटे कैसा प्यार मनै, मांगेराम समझ राखी थी, सत की सीता नार मनै, बात लकोह की, करती धोह की, टोकी पहली बार मनै, डाकु चोर बतावण लागी, ऊंत-लफंगा जार मनै, राजेराम जमाना जाणै, इसे आदमी हाम-सा कोन्या ।।

                                    (सांग:15 ‘पिंगला-भरथरी’ अनु.-7)

लख्मीचंद राम नै टेरै, कटज्या यम की फांसी, मांगेराम का गाम पाणंछी, धाम समझ लिया कांशी, 8 योग 56 भोग कहै, संत लोग सन्यासी, राजेराम भी नेम-टेम तै, रहै प्रेम का बासी, श्रुति हर के ध्यान की, देणे वाली वरदान की, मात भवानी सै, रट माला भगवान की ।।

                           (सांग:19 ‘मीरगिरी महाराज’ अनु.-6)

के मांगू सोना-चांदी बाबा, के धनमाल खजाना, देदे वरदान बाबा, एक पूत की सै चाहना, मांगेराम गुरु हमारे, जाणै सकल जमाना, बालकपण मै सीख लिया, मामूली सा गाणा, राजेराम कहै मेरा गाम सै, ख़ास लुहारी देहात मै ।।

                                    (सांग:17 ‘बाबा जगन्नाथ’ अनु.-3)

पौराणिक सन्दर्भ (शास्त्र-मंथन):-

बचपन मै बेटी नै चाहना, मात-पिता के प्यार की हो, डोर पतंग नै, मणी भुजंग नै, इसी तुरंग नै असवार की हो, पत्नी पीह बिन, खेती मीह बिन, सुखै जमींदार की हो, हंस-हंसणी बूगले-सारस, जोड़ी पुरुष-नार की हो, साहूकार की निभै दोस्ती, निर्धन गेली कोन्या ।।

                                  (सांग:7 ‘सत्यवान-सावित्री’ अनु.-11)

बूआँ की बेटी, बहाण चचेरी, सगी बहाण मां जाई, चौथी थी बहाण गुरूं की बेटी, बेदों नै भी गाई, यार की पत्नी, बहाण धर्म की, साली ठीक बताई, तेरा बेटा सै बालकपण का, मेरा यार धर्म का भाई, सेठ तेरे बेटे की बोढ़िया नै, सोचूं बहाण मै ।।

                                   (सांग:15 ‘पिंगला-भरथरी’ अनु.-18)

पृथु नै भी धर्म की मात, सुनीता मानी थी, लछमन देवर माता भाभी, सीता मानी थी, भीष्म नै भी गंगा कैसी, गीता मानी थी, राजेराम नै ज्ञान की खोज, कविता मानी थी, डूप्लीकेट माल फोकट का, तेरी दूकान मै ।।

                                   (सांग:15 ‘पिंगला-भरथरी’ अनु.-18)

नौ दरवाजे दस ढयोढ़ी, बैठे चार रुखाली, 20 मिले 32 खिले फूल, 100 थी झुलण आली, खिलरे बाग़ चमेली-चम्पा, नहीं चमन का माली, बहु पुरंजनी गैल सखी, दश बोली जीजा साली, शर्म का मारया बोल्या कोन्या, रिश्तेदारी करके ।।

                                      (सांग:1 ‘महात्मा बुद्ध’ अनु.-12)

जड़ै आदमी रहण लागज्या, उड़ै भाईचारा हो सै, आपा-जापा और बुढ़ापा, सबनै भारया हो सै, एक पुरंजन 17 दुश्मन, साथी बारा हो सै, बखत पड़े मै साथ निभादे, वोहे प्यारा हो सै, प्यार मै धोखा पिछ्ताया, नुगरे तै यारी करके।।

                                      (सांग:1 ‘महात्मा बुद्ध’ अनु.-12)

6 नीति राजपुता की, ब्राह्मण की चार नीति सै, पहली नीति सत बोलै बाणी, सत ही परमगति सै, संध्या-तर्पण हवन-गायत्री, योग ब्रह्म-शक्ति सै, माया त्यागै, भजन मै लागै, या ब्राह्मण की भक्ति सै, आत्मज्ञान सब्र संतोषी, पटै ब्रह्म का बेरा ।।

                                           (काव्य विविधा: अनु.-11)
                                      

बड़े-बड़े विद्वान ज्योतषी, होए ब्राहमण बेदाचारी, बेद विधि आगे की जाणै, कोन्या पेट-पूजारी ।। टेक ।।

बृहस्पति गुरू देवताओं नै भी, ज्ञान सिखाया करते, शुक्राचार्य मरे माणसां नै, फेर जिवाया करते, मण्डप ऋषि शरीर सूधा, सूरग मै जाया करते, ऋषि श्रृंगी यज्ञ हवन तै, मीहं बरसाया करते, अगस्त मुनी समुंद्र पीकै, करगे जल नै खारी ।।

चार बेद 6 शास्त्र थे, रावण कै याद जबानी, 33 करोड़ देवते कैद मै, काल भरै था पाणी, दुर्वासा वशिष्ठ अंगीरा, बेदब्यास ब्रहमज्ञानी, कागभूसण्डी नारद भृगु, ना दाब किसे की मानी, भृगु नै विष्णु जी कै, लात कसूती मारी ।।

परसूराम नै 21 बार या, दुनियां जीत लई थी, जह्नु ऋषि के पेट मैं, वा गंगे मात रही थी, होई चकवैबैन की फौज खत्म, चुर्णकुट ऋषि गैल फ़ही थी, कास्ब ऋषि नै जगत रच्या, पृथ्वी पैताल गई थी, 30 हजार वर्ष तक, राखी दुनियां सारी ।।

ब्राहमण रूप कहै ब्रहमा का, जिसनै जगत रचाया, ब्राहमण मै विष्णु का बास, न्यू चार बेद नै गाया, राजेराम लुहारी आले नै, बुद्ध का सांग बणाया, ब्राहमण का बामा अंग छत्री, दहणा धर्म बताया, यज्ञ-हवन और सदाव्रत मै, कुबेर होया भण्डारी ।।

                                                               (सांग:1 ‘महात्मा बुद्ध’ अनु.-7)

प्रकृति-चित्रण:-

गोपनी राधे संग आई, बणे थे ललिहारी नंदलाल ।। टेक ।।

लखचैरासी जियाजून रवि, गंधर्व-किन्नर मनुष जात, ऊँट-खच्चर घोड़ा-हाथी, बकरी-भैस गऊ मात, गैंडा-साबर जर्क-रोंझ सूर, हिरण-कंगारू शुस्सा निहात, शारदूल-श्वान भेडियां, रिछ-भालू चिता-बाघ, झावा-झण्ड और न्योळ-कंघैवा, बिच्छू-कीरल गभेरा-नाग, तोता-मैना चकवा-चकवी, सारस-बुगला हंस-काग, मुस्सा-बिज्जू-बिलाई, काटो लोबा-स्याल ।।

तितर-बाज कोतरी-उल्लू, कुंज-कबूतर बागल और, जैया-तीज ततैया-दादर, भैया-गरूड़ पपैया-मोर, मुर्गा-गीद टटीरी-गुरसल, मोडी सौनचिड़ी-चकोर, कोयल-बुलबुल भंवर-पतंग, चकचुन्दर-टिडी भुण्ड-किशारी, जूण-जोंक सुणसुणियां-छिपकली, कानखजूरा-कानसलैया न्यारी, माक्खी-डीमक डांस-दिखोड़ी, खटमल-किड़े जूंम-करारी, कछुआ-मेढंक-मुरगाई, पड़े मगरमच्छ ताल ।।

ढ़िघां-चील, कमोत-कमेरी, कोकिल खातीचिड़ा-बुटेर, गिल्ला-साण्ड़ा सेह-गोहचिपटण, कक्षुआ और मीन मच्छेर, श्योर-मकोड़ा घुग्घू-मकड़ी, पिस्सु-पटबिजणा पखेर, चार धाम सब जाती, गंगा-जमना 68 तीर्थ न्यारे, सुरग-नरक पैताल-यमपूरी, धरती-अंबर चांद-सितारे, 56 करोड़ यादूवंशी, देवता बताये सारे, कैसी लीला दिखाई, तनै कृष्ण गोपाल ।।

मस्तक पै मुरलीधर लिखदे, काना पै कृष्ण श्याम, गर्दन पै गिरधारी लिखदे, नाभि पै नारायण नाम, सिने पै सावरियां लिखदे, रूम-रूम मै सीता-राम, भूजा पै बृज बिहारी लिखदे, कुचा पै कन्हैया काला, पेट उडै पुरूषोतम लिखदे, गोड्या पै गोपाल ग्वाला, धोरै नाम कवि का लिखदे, राजेराम लुहारी आला, जड़ मैं लिख जमना माई, गिणुंगी बैठ किनारै झाल ।।

                                      (सांग:10 ‘कृष्ण-लीला’ अनु.-18)
      ** हरियाणे के परम्परा **

चम्पा बाग जनाने मै, सारी झूलण नै चाली, होए चमन-गुलजार, बाग मै छाई हरियाली ।। टेक ।।

सामण का महिना बेबे, उठै सै बदन मै लोर, बिजली चैगरदै खेवै, काली घटा घन-घोर, तीजा का त्यौहार झुलै, बाकी झूलण आवै और, बेल-फूल लता-पात, फलों से झुकी थी डाल, अबंर घटा टोक दिखै, तीतर पंखी बादल चाल, कोए-कोए फूंहार पड़ै, सीळी-सीळी चालै बाल, रूत बरसण आली ।।

केवड़ा-चमेली फूल, सुनेहरी गुलाब दिखै, खुश्बोई मै टूल रहे, भौरें बे-हिसाब दिखै, मुर्गाई फिरै सै तिरती, पाणी का तलाब दिखै, तोता-मैना कोयल बोलै, सोण देरी सोहन चिड़ी, चकवा-चकवी बुगले-सारस, हंसा की डार खड़ी, पपैया चकोर-मोर, बुलबुल नाचै चार घड़ी, देख रहा माली ।।

घाघरा सै 52 गज का, दखणी चीर अनमोल, चुटकी न्योरी-पाती, छन-पछेली कड़े-रमझोल, हंसली-हांस गुलीबंद, जंजीरा तबीजी-ढ़ोल, नाथ-झुम्मक हार-कंठी, मोहनमाला-हथफूल, तागड़ी सै गुच्छे आली, बाजू-बंध आई भूल, पाती का पेंच ढ़ीला, थामणी पड़ैगी झूल, झब्बे मै ताली ।।

शिवजी साथ गौरा झुली, गोद मै गणेश लिया, उर्मिला संग लछमन झुले, अयोध्या मै राम-सिया, मधुबन मै राधे झुली, कृष्ण जी नै रास किया, इन्द्राणी-ब्रह्माणी झूली, लछमी भगवान की, आर्यो की नार झूलै, सारे हिन्दूस्तान की, राजेराम लुहारी आले, राही टोहली गाण की, गावै तत्काली ।।

                           (सांग:5 ‘कंवर निहालदे-नर सुल्तान’ अनु.-10)

सवांद योजना:-

नोट:- सज्जनों! इस सवांद-योजना की 4 कली की रचना मे कविराज प. राजेराम ने अपनी पहली कली मे 15 फूल लगाए है और शेष 3 कलियों मे 12-12 फूल लगाए है। इस सवांद-योजना मे कवि ने उस अवसर को देखते हुए एक बहुत ही अदभुत तर्ज के साथ एक अदभुत रचना के सहज भाव को प्रदर्शित किया है तथा ऐसी सवांदयोजी रचनाये हमको कभी-कभी, कही-कही और शायद बहुत ही कम देखने को मिलती है।

भरथरी- पड़ी फिक्र मै किस ढाला, बूझै भरतार तेरा सै ।। टेक ।।

           सांझी तन का तेरे मन का, कौणसा ख्याल जता राणी,
           करती नखरे नाज आज, के होगी कोए खता राणी,
           सै फिका चेहरा क्यूं तेरा, मनै बेरा नहीं बता राणी,

पिंगला- बिछड़या कृष्ण राधे प्रसन्न, कोन्या दर्शन करे बिना,

           झगड़े-टण्टे चैबीस घण्टे, मै उमण-धुमणी तेरे बिना,
           बदन फूल सा मुर्झाया, ना छाया दरखत हरे बिना,

भरथरी- हाथी-घोड़ा सुखपालकी, जुड़वा दुंगा सैल करण नै,

           खस-खस आलें पंखे निचै, बिछरी शतरंज खेल करण नै,
           क्यूं पड़ी उदासी सोला राशि, सौ दासी तेरी टहल करण नै,

पिंगला- कहूं खरी सुण बात मेरी, मै तेरी पतिभ्रता हूर पिया,

           दिल डाट अलग ना पाट, चाहे सिर काट जै मेरा कसूर पिया,
           लिए बुझ ब्रहम तै मरी शर्म तै, नहीं धर्म तै दूर पिया,

भरथरी- दमयंती सी रूपवंती, तू सतवंती सत की नारी,

           सीता और सुनीता-गीता, जिसी द्रोपद गंधारी,
           शंकुतला सत की उर्मिला, इसी मनै पिंगला प्यारी,
           ना कोए बिसरावण आला, मेरै इतबार तेरा सै । 1 ।

पिंगला- शाम-सबेरा मिलणा तेरा, लागै कोन्या मेरा जिया,

           सहम तवाई भरदी बेदर्दी, बज्जर का तेरा हिया,
           मेरै रूम-रूम मै बसै भरथरी, चीर कलेजा देख पिया,

भरथरी- ना मांग सिंदुरी, खिण्डी लटूरी, होया डामाडोल शरीर तेरा,

           धरूं सिर पै ताज, गद्दी पै राज, कर आज तै मै वजीर तेरा,
           खड़ी बांदी पास, चेहरा उदास, क्यूं मृगानयनी बीर तेरा,

पिंगला- गंदा फूल भंवर अंधा, जणुं चंदा बिन चकोर पिया,

           तन की तृष्णा मन की ममता, चित की चिंता चोर पिया,
           धर्म धुरधंर बंदर आली, तेरे हाथ मै डोर पिया,

भरथरी- दखणी चीर घाघरा 52 गज का, कलियादार गौरी,

           कुण्डल कान जंजीरी तुगंल, पायल की झनकार गौरी,
           छण-कंगण हथफूल-गजरिया, नाथ-गुलिबंद सार गौरी,
           कित कंठी-मोहनमाला, कित चंदनहार तेरा सै । 2 ।

पिंगला- सादा भोला कहै नेक, मनै देख लिया तेरा विक्रम भाई,

           फिरै लफंगा और गैर न्यूं, कहै शहर के लोग-लुगाई,
           ख्याल तेरै ना रंज मेरै, फिरै तकता बेटी-बहूँ पराई,

भरथरी- विक्रम भाई नहीं इसा, तूं किसनै दी भका राणी,

           झूठ-साच का पनमेशर कै, न्या होगा दरगाह राणी,
           हाकिम टोरा तेरा डठोरा, जाणुं तेज शुभा राणी,

पिंगला- सुण करकै ढ़ेठ होई कई हेट, जा घरां सेठ कै आज पिया,

           करै डठोरे सेठ के छोरे की, बहूँ पै धर ध्यान लिया,
           फिरै दिवाना कहै जमाना, लुटा खजाना माल दिया,

भरथरी- खैचांताणी राणी घर मै, सोच-फिक्र मै डोली काया,

           वो निर्दोष होश कर दिल मै, झुठा चाहवै दोष लगाया,
           शीलगंगे भीष्म तै कम ना, विक्रम भाई मां जाया,
           उसकै नहीं पेट काला, गलत विचार तेरा सै । 3 ।

पिंगला- ढोल भ्रम के सुण विक्रम के, मारे गम के तीर पिया,

           बोल सुणुं सिर धुणू बणू के, मै दोया की बीर पिया,
           कहरी सूं बेधड़कै-लडकै, तड़कै जांगी पीहर पिया,

भरथरी- बोल जिगर मै दुखै-फूंकै, थुकैगी दुनिया सारी,

           तेरै हवालै करगी-मरगी, पानमदे मात म्हारी,
           भाई काढया अन्यायी नै, भाभी आई कलिहारी,

पिंगला- डाट जिगर नै पनमेशर कै, देणी होगी जान पिया,

           गंगा माई की सूं खाई, नहीं बोली झुठ तूफान पिया,
           विक्रम सै बदमाश खास, इतिहास कहैगा जहान पिया,

भरथरी- लखमीचंद शिष्य मांगेराम का, धाम पाणंछी सै कांशी,

           इन बाता मै घर का नाश, के थुकै दास तनै दासी,
           तेरे प्रेम की नर्म डोर, कमजोर घली गल मै फांसी,
           राजेराम लुहारी वाला, ताबेदार तेरा सै । 4 ।
                                   (सांग:15 ‘पिंगला-भरथरी’ अनु.-10)

शामिल जवाबः- चंद्रावल-गोपीचंद का ।

कितका-कौण फकीर बता, बुझै चंद्रावल बाई, भूल गई तू किस तरिया, गोपीचंद सै तेरा भाई ।। टेक ।।

गोपीचंद के नाना-नानी, सै कौण बता मेरे स्याहमी, नानी पानमदे नाना, गंधर्फसैन होया सै नामी, गोपीचंद कै और बतादे, कै मामा कै मामी, मामा विक्रमजीत-भरथरी, बहाण मैनावंती जाई, मामी का भी नाम बतादे, उनकै ब्याही आई, मामी पिंगला, रतनकौर-परी खांडेराव बताई ।।

गोपीचंद के दादा-दादी, कौण होए फरमादे, दादा पृथ्यू सिंह था, म्हारी दादी सै कमलादेए कौण माता कौण पिता, मेरे थे उनका नाम बतादे, पिता पदमसैन मां मैनावंती, होए गोपीचंद सहजादे, गोपीचंद नै और बतादे, कितनी राणी ब्याही, गोपीचंद कै सोला राणी, 12 कन्या जाई ।।

और बता के सन् तारीख थी, वार तिथि मेरे ब्याह की, सन् दसवां नौ चार वार बृहस्पति, पंचमी माह की, कितै आई बरात सवारी थी, मेरे ब्याह मै क्यां की, टमटम-बग्गी अरथ-पालकी, डोली थी तेरे ना की, माचगी धूम कुशल घर-घर मैं, होए किसतै ब्याह-रै-सगाई, ढाक बंगाला के उग्रसैन, राजा नै तू परणाई ।।

राज-कुटुम्ब-घरबार तज्या, तनै किसनै जोग दिवाया, जोग दिवाया माता नै, मेरी अमर करादी काया, राजेराम लुहारी आले, कौण गुरू तनै पाया, पाड़े कान मेरे गोरख नै, जिसकी अदभूत माया, गोपीचंद कै पैर पदम, और माथै मणी बताई, राख हटाई माथे की, पैर पदम दर्शायी ।।

                                  (सांग:16 ‘गोपीचंद-भरथरी’ अनु.-24)

बहरे-तबील रचनाएँ:-

सुणी आकाशवाणी, मेरी मौत बखाणी, ये सुणकै कहाणी, मेरा दुखी ब्रह्म, हे देवकी डरूं, तुझे मार मरूं, पाछै बात करूं, तनै पहले खतम ।। टेक ।।

तुझे दूंगा जता, तेरी ये है खता, मुझे चलग्या पता, दुश्मन लेगा जन्म, ना तै बहाण नै भाई, कोए मारैगा नाही, तेरी शादी रचाई, न्यूं पिछ्ताये हम ।।

मेरा कांपै हिया, जागा मुश्किल जिया, सुणकै भभक लिया, न्यूं होग्या भस्म, मै डरता नहीं, जिंदा फिरता नहीं, कदे भरता नही, ऐसा होग्या जख्म ।।

तेरे केश पकड़कै, बोल्या कंस अकड़कै, काटू शीश जकड़कै, निकालूंगा दम, जब आवै सबर, पटज्या सबको खबर, तूझे मारूं जबर, आज बणकै नै जमं ।।

ये सवाल मेरा, दीखै काल मेरा, जन्मै लाल तेरा, ही मेरा सितम, राजेराम नै कही, सबके मन की लही, वो रखता बही, है सबकी लिखतम ।।

                                     (सांग:10 ‘कृष्ण-जन्म’ अनु.-13)

होई कर्मा की हाणी, पड़गी बताणी, भोई नै राणी, गुजारे सितम ।। टेक ।।

पाणी-दाणा छुट्या,मेरा जमाना छुट्या,जैसे बुलबुल का गुलशन में आणा छुटया, चिंत्या मै पीणा-खाणा छुटया, मेरा अधम बिचालै टुटै सै दम ।।

शेर कै ताप निवाई चढी, सिर पै बिलाई चढ़ी, अधर्म की बेल चढ़ाई चढ़ी, केतु-राहू की करड़ाई चढ़ी, रूठे भाग विधाता शनि और यम ।।

यो जंग हो गया, यज्ञ भंग हो गया, इब मरण का ढंग हो गया, ऋषि सताया न्यूं मै तंग हो गया, देख्या ना जाता ये मेरा कुटम ।।

जा ना बात लुह्की, सारी प्रजा दुखी, पुत्र सुपात्र तो मां-बाप सुखी, कहै राजेराम शर्म से अखियां झुकी, समझणिया नै मारै सै गम ।।

                                 (सांग:3 ‘चमन ऋषि-सुकन्या’ अनु.-5)

गति कर्मा की न्यारी,जाणै या दुनिया सारी,कोए कंगला-भिखारी, कोए धनवान है, माणस अज्ञानी, पड़ै विपता उठाणी, यो जिंदगानी का इम्तहान है ।। टेक ।।

किसे नै परिवार की, चिंत्या घरबार की, गरीब नै चिंत्या हो सै रोजगार की, या दुनियादारी साहूकार की, निर्धन का तो भगवान है ।।

पागल कोए स्याणा, कोए है दीवाना, माया कै सेती फिरै है जमाना, सिर पै ढोवै कुली बोझ बेगाना, कोए देश का नेता प्रधान है ।।

कोए मेल मै फिरै, कोए जेल मै फिरै, कोए जेब काटता रेल मै फिरै, कोए चोर-लुटेरा धक्कापेल मै फिरै, कोए खेतो का किसान है ।।

राजेराम भविष्यवाणी, समो आणी-जाणी, तकदीर कै आगै भरती या तदबीर पाणी, राजा के महला की पटराणी, फिर भी दुखी बिना एक संतान है ।।

                                    (सांग:18 ‘बाबा छोटूनाथ’ अनु.-9)

शब्दावली एवं भाषा ज्ञान:- पंडित राजेराम एक निरक्षर के समान है और उनकी प्रचलित भाषा राष्ट्रीय हिन्दी व हरियाणवी सामान्य लोक-भाषा एव खड़ी बोली ही रही है, फिर भी उन्होंने अन्य भाषओं और शब्दों का श्रवण पूरी लगन के साथ किया है | अतः उनके काव्य मे अन्य लोक-प्रचलित भाषायी शब्दों का बाहुल्य मिलता है | पंडित राजेराम को अपनी बोली एवं भाषा के साथ-साथ अन्य भाषाओँ के साथ-साथ, जैसे- उर्दू, अरबी-फारसी, अंग्रेजी आदि से कितना प्यार था और उसमे कितनी महारत हासिल की हुई है, इस साक्ष्य के लिए “चापसिंह-सोमवती” की निम्नलिखित बहरे-तबील रचना पर एक नजर डालिए-

बादशाह आलम, जहांपना मुगलेआज़म, मुजरा करूंगी सलावालेकम, मेरी दुहाई, सुणो पनाह इलाही, नृत करने आई, मै चाहती हुकम ।। टेक ।।

परेशानी मेरी, दुख की कहानी मेरी, जिन्दगानी मेरी, म्यं आया भूकम, शेरखांन है, पापी इंसान है, बेईमान है, उसने किया जुलम ।।

देता है गाली, मनै कहता चडांली, बोल्या बण घरआली, ना करूंगा ख़तम, धन लुटया मेरा, दिल टूटया मेरा, घर छुट्या मेरा, रूस्या बलम ।।

रहीं सत पै डटी, फेर भी घटना घटी, ना महलम पट्टी, इसा बोल का जख्म, विनती करू, के जीवती फिरू, टककर मार मरू, इसने गुजारे सितम ।।

मै गरीब लुगाई, जोड़ी थी पाई-पाई, मेरी सारी कमाई, करग्या हजम, राजेराम गवाह, होगा दरगाह मै न्या, बोलूंगी झूठ ना, खुदा की कसम ।।

                                 (सांग:14 ‘चापसिंह-सोमवती’ अनु.-31)

रस-मलाई दूध-कोफी, बड़े-पतासे दही-पलेट, भुजिया-पापड़ साम्भर-ढोसा, बिस्कुट, विस्की और ब्रेड, साबुदाणा फाफर की रोटी भी, खाते कोन्या सेठ, लेरी खांड कसार, बेचती दाल और धानी ।।

                                      (सांग:13 ‘सरवर-नीर’ अनु.-13)

गुलदाणा गुलाब-जामण, दिलकूसार पुड़े-माल, हलवा-पुरी खीर बणै, साग-रायता लोन्झी-दाल, जीम लिए बैठ धोरै, पंखे तै करूंगी बाल, खा तो खाणा त्यार, नहाण नै ताता पाणी ।।

                                      (सांग:13 ‘सरवर-नीर’ अनु.-13)

छंद योजना :-

1 दोहा-

गोपी जाओं ब्रज मै, बोले कृष्ण मुरार। मारी पड़ी प्रेम की, करण लगे इंकार।।

ना मानी गोपियां, होऐ मन मै अरमान। त्रिलोकी नाथ थेए, होगें अंर्तध्यान।।

                                      (सांग:11 ‘कृष्ण-लीला’ अनु.-15)

गोपी बण गोकुल मै, आए कृष्ण योगीराज। लिखवालों सब किमे, देणे लगे आवाज।।

खिणवाती सब गोपिया, चराचर जीव तमाम। सती भक्तणी राधिका, लिखवाती हर के नाम।।

                                      (सांग:11 ‘कृष्ण-लीला’ अनु.-18)

2 काफिया-

काढ दिया बेटा घर तै, झुठा सै मोहजाल तेरा, कहलावै थी राजमाता, मुक्कदर कंगाल तेरा, शतरंज-सेज छोड़कै नै, धरती के म्हां लाल तेरा,

                                  (सांग:16 ‘गोपीचंद-भरथरी’ अनु.-18)

याणे बालक पति बडेरा, छुटग्या घर-गाम इसका, मेरी सराह मै पात्ते ढोवै, रोजाना सै काम इसका, और मनै बेरा कोनी, अम्ली सै नाम इसका,

तेरी ढाला पिसै गेल्या, मरदे कोन्या भठियारी, लाखा का म्हारा लेनदेन सै, डरदे कोन्या भठियारी, हो बदनामी इसा काम, करदे कोन्या भठियारी,

                                      (सांग:13 ‘सरवर-नीर’ अनु.-13)

3 चमोला-

दोहा- सोमवती के साथ मै, देख्या जब पठान।

      कित आगी या गादड़ी, क्षत्री होया परेशान।।

चमोला- कहै बड़े-बड़ेरे फागण की बरसात काम की कोन्या,

      करै दोगली बात सभा मै वा पंचात काम की कोन्या, 
      मेल करै धोखा देज्या वा मुलाकात काम की कोन्या, 
      झूठ बोलदे वा त्रिया की जात काम की कोन्या, 
                                 (सांग:14 ‘चापसिंह-सोमवती’ अनु.-30)

दोहा- बुरी करै बुरे आदमी, जिनके माड़े भाग।

      ले धोला बाणां कर परी, खड़ी उडाईये काग।।

चमोला- एक बाग मै पेड़ समी का, तोता-मैना बैठे बात करै,

      17 दुश्मन 12 साथी, जिंदगीभर का साथ करै,
      आठ पहर के 24 घंटे, 64 घड़ी विख्यात करै,
      गुलशन बाग छुट्या बुलबुल का, कित डेरा दिन-रात करै,
                                 (सांग:14 ‘चापसिंह-सोमवती’ अनु.-28)

4 सवैया-

पाछै खाणा पहले गंगाजल से, अस्नान करूंगी मै, रामायण गायत्री-गीता का भी, ध्यान करूंगी मै, 24 घंटे याद पति परमेशवर, मान करूंगी मै, संत-अतिथी घर आऐ का, आदरमान करूंगी मै,

                                 (सांग:14 ‘चापसिंह-सोमवती’ अनु.-10)

पति-पत्नी से परम्परा, दुनिया की शैया चालै सै, जती-सती और सतपुरूषो की, सत से नैया चालै सै, परमेशर की परमगति से, गंगे मैया चालै सै, गाड़ी उसका नाम जगत मै, जिसका पहिया चालै सै,

                                 (सांग:14 ‘चापसिंह-सोमवती’ अनु.-18)

जिसके मात-पिता मरज्या, वो बालक के खुशी मनावै, जिसकै लगै बीमारी तन मै, सारी उम्र दवाई खावै, कै तो मालिक उसनै कुणबा देदे, ना तो साधु-संत बणावै, कट्ठी होली लुगाई सारी, चापसिंह बहू नै ल्यावै।।

                                 (सांग:14 ‘चापसिंह-सोमवती’ अनु.-18)

5 गजल योग्य पंक्तियाँ-

निगाह पिछाणी शरीफ-चोर की, मै सू पतंग नरम डोर की, नाथ भोर की सै अनमोल, मोहनमाला हार कीमती सै बेदाम।।

                                 (सांग:14 ‘चापसिंह-सोमवती’ अनु.-15)

हजरत पनाह बादशाह आगै, कसम खुदा की खाई, बोलै झूठ शर्म नहीं आई, भरी सभा मै ठाई, इसनै कुरान सै।।

                                 (सांग:14 ‘चापसिंह-सोमवती’ अनु.-33)

नेकी-बदी चलै माणस कै, सेती झूठ-सच्चाई, तेरा मुंह दरगाह मै काला होगा, गऊ गरीब सताई।।

                                     (सांग:10 ‘कृष्ण-जन्म’ अनु.-25)

बाग मै खिलरे फूल-चमेली, मस्त भंवर सै खुश्बोई गेली, सखी-सहेली सारी आगी होके त्यार, मै झूलण बाग मै जांगी।।

                            (सांग:5 ‘कंवर निहालदे-नर सुल्तान’ अनु.-8)

मृग चरै था गहरे बण मै, पारधी आ निकला एक छन मै, घा सै तन मै मारी गोली, मनै फूंक बदन का चाम लिया।।

                                        (सांग:6 ‘सारंगापरी’ अनु.-29)

6 अलंकृत पंक्तियाँ-

कर्मा करके जोग भिड़य़ा सै, के आगै अधर्म आण अड़या सै, आरा चालै करोत पडया़ सै, वाहे दिखै कांशी कोन्या।।

                                 (सांग:7 ‘सत्यवान-सावित्री’ अनु.-15)

सूर्य के समान तेज छवी, अश्वनी-कुमारों तै प्यारी, बृहस्पति कैसा बुद्धिमान, इन्द्र कैसा बलकारी, पृथ्वी कैसा क्षमाशील, मां-बाप का आज्ञाकारी,

                                  (सांग:-7 ‘सत्यवान-सावित्री’ अनु.-17)

सदा कोए कंगाल रहया ना, सदा कोए साहुकार नही, मात-पिता बन्धु-सुत-नारी, सदा मित्र रिश्तेदार नहीं, लाड-चोंचले तरूण अवस्था, सदा रूप श्रृंगार नहीं, सदा नाम सच्चे मालिक का, सदा समो एकसार नहीं,

क्षत्री छैल शान का छोरा, दिखै चाले पाड़ डिठोरा, गौरा-2 गात, उसकी थी सुरत भोली-भाली।।

                                   (सांग:16 ‘गोपीचंद-भरथरी’ अनु.-7)

श्रृंगार-रस:-

के सुन्दरी तेरा नाम? कितै आई नहीं बताई? कौण नगर घर-गाम? ।। टेक ।।

नाचण आली तेरा नाचणा, हीरै तै अनमोल सै, गांवै थी जब मिंह सा बरसै, कोयल कैसा बोल सै, मोहली सभा तमाम, कितै आई नहीं बताई, कौण नगर घर-गाम।।

पहला जादू रूप जवानी, दूजा लक्ष्मी भाग सै, सुर की मार प्यार का जादू, गावै रागनी-राग सै, दिल पत्थर होए मुलाम, कितै आई नहीं बताई, कौण नगर घर-गाम।।

हूर पद्मनी चित्र सुशीला, सुंदर सै घणी श्यान की, हजरत पनाह बादशाह मोहे, बेगम हिन्दुस्तान की, न्यूं बोले मांग इनाम, कितै आई नहीं बताई, कौण नगर घर-गाम।।

उर्वशी कोए नाचण आली, इंद्र के दरबार मै, नटबाजी नटकला दिखावै, पड़ग्या सोच-विचार मै, न्यू बोल्या राजेराम, कितै आई नहीं बताई, कौण नगर घर-गाम।।

                                 (सांग:14 ‘चापसिंह-सोमवती’ अनु.-30)

बिजली सा नूर हूर, दिखै चोर-भौर कैसी, नाक सूवा सा मृगानयनी, गर्दन हालै मोर कैसी, चन्द्रमा सी शान प्यारी, अवस्था किशोर कैसी, मुरगाई सी चाल चालै, हथणी सी डोल रही, मुस्कराके बात करै, सन्तरे से छोल रही, कोकिल और कोयल कैसी, मीठी बाणी बोल रही, गावै बेताली, ठुमरी-क्वाली।।

नाग सी जुलफ काली, दुपट्टा नारंगी लाल, तला ऊपर खड़ी हुई, किनारे पै गिणै झाल, अम्बर-घटा टोंक दिखै, तीतरपंखी बादल चाल, हरियलए तोता-मैना बोलै, पपैईया चकोर-मोर, केवड़ा चमेली-चम्पा, गेन्दा और गुलमोर, खुश्बोई मै टूलै भँवरे, फूल पै जमावै जोर, किसी छाई हरियाली, इन बागां का माली।।

                                (सांग:8 ‘राजा दुष्यंत-शकुंतला’ अनु.-7)

उठै पायल की झनकार, माला-नाथ झुमकी-हार, पड़ै फुहार, हवा ठण्डी चमकै बिजली आसमान आली, पके अंगुर आम नौरंगी, झुकी मौसमी खाण आली।।

                                (सांग:8 ‘राजा दुष्यंत-शकुंतला’ अनु.-4)


दृष्टिकोण:- एक नजर में-

1 संगीताचार्य दृष्टिकोण-

सभी राग चालकै गा दूंगी, राजा के दरबार मै, गाणे और बजाणे आली, नाचूं सरे बजार मै ।। टेक ।।

मालकोष हिण्डोला भैरू, श्रीराग दीपक मल्हार, छ:हूँ राग याद मेरै, गन्धर्व की नीति चार, सात सुरां मै नि-ति पा-मा, धा-नि-सा और गंधार, भैरवी बैरारी सिंधू, माधवी बंगालिया, तोड़ी टोडी गोरी, खम्भावती गुण कालिया, रामकली ललित पटमंजरी, देश थालियां, नैट कैनरा और बिलावल, गाऊ देश किदार मै ।।

धन्नाश्री मालवी, असांवरी बसंत माल, देरा कालि कुंभ पहाड़ी, कश्मीरी का बुझै हाल, भोपाली मल्हारी तिलंका, गुजरी बतावै ताल, हेमचंद कल्याण यमन, श्यामकला श्याम की, मोहनी-सोहनी चांदनी, अमीर सौरट नाम की, जोगिमा विभास शंकरा, शिवरंजनी शिवधाम की, भीम प्लासी पंचम पिंगला, लुटी प्रितम प्यार मै।।

रणसिंहा वालिन तमूरा, बिगूल और गिटार, सारंगी हरमूनियम, शहनाई विणा सितार, इकतारा-दूतारा बीण, बासंली मै सुर की मार, तबला और नगाड़ा ढोलक, पखावज और मृदंग, डमरू-ढप खड़ताल, ताशा और मंजीरा चंग, शंकए तुर्री घड़रावल, बजावण का जाणु ढंग, पत्थर का पाणी पिंघलके, मिलकै गाऊं साज के तार मै।।

तीस किस्म के नाच बताये, झांक झावरा झुमरझूम, सोहन कपूरी गिधा भंगड़ा, डांडिया भरतनाटूम, जाणू लय सूरताल दादरा, ठुमरी-ठप्पा ढुमर-धूम, सुंदर शान मधुर बाणी, अवस्था किशोर की, शरीफ की शराफत, नजर पिछाणू मै चोर की, राजेराम लुहारी आला, पतंग बिना डोर की, बावला जमाना होज्या, नांचूगी जिब कर सोला सिगांर मै।।

                                 (सांग:14 ‘चापसिंह-सोमवती’ अनु.-29)

पिंगल बिन कविताई सुन्नी, माणस बिना लुगाई सुन्नी, बिना हकीम दवाई सुन्नी, बिना दवाई पड़ै बीमार, करी पढाई निष्फल होज्या, फिरै आदमी बेरोजगार।।

बांस पै नहीं डोलणा आवै, कोन्या गात झोलणा आवै, राजेराम ना बोलणा आवै, लगै बादशाह का दरबार, थर-थर कांपै गात सहमगी, के गावैगी राग-मल्हार।।

                                 (सांग:14 ‘चापसिंह-सोमवती’ अनु.-26)

कई किस्म के नाच बताएं, ना बेरा नाचण आली नै, गावण के घर दूर बावली, देख अवस्था बाली नै ।। टेक ।।

नटबाजी-नटकला बांस पै, तनै डोलणा आवै ना, दोघड़ धरकै नाचैगी के, गात झोलणा आवै ना, संगीत कला गन्धर्व नीति का, भेद खोलणा आवै ना, साज मै गाणा दंगल के म्हा, तनै बोलणा आवै ना, के जाणै सुरताल दादरा, ठुमरी गजल क्वाली नै।।

                               (सांग:14 ‘चापसिंह-सोमवती’ अनु.-28)

6 राग और 30 रागणी, सुर सात बताए सारे, नी ती पा मा गंधार, पा धा नी सा निश्कल छंद न्यारे, चंग-सारंग सीतार-शहनाई, तबला बीण नंगारे, हुर नाचती गंधर्फा मै, साज बजै थे सारे,

                                       (सांग:9 ‘नल-दमयंती’ अनु.-5)

2 भौगोलिक/खगोलीय दृष्टिकोण-

धुर की सैर कराऊं, बैठकै चालै तो म्हारे विमान मै, फिरै एकली सुकन्या, क्यूं जंगल बीयाबान मै ।। टेक ।।

सुमेरूं कैलाश देखिऐ, जड़ै शिवजी-पार्वती सै, सुमेरूं तै काग भूसण्डी, योगी परमगति सै, राहु-केतु शनि पास मै, शुक्र-बृहस्पति सै, आठ वसु, नौ ग्रह देवता, दस दिगपाल गति सै, सप्तऋषि-त्रिशकुं दिखै, ध्रुव भगत असमान मै ।।

56 हजार लाख योजन, पृथ्वी से चांद बताया, चंद्रमा से तीन लाख योजन, सूर्य कहलाया, सूर्य से 13 लाख योजन, ध्रुव लोक परमपद पाया, 1700 योजन परमलोक, ब्रहमा नै जगत रचाया, आसमान का अंत फेर भी, लिख्या नहीं प्रमाण मै ।।

पूर्व दिशा मै स्वर्गपुरी, न्यूं संत-सुजान कहै सै, दक्षिण दिशा मै यमलोक, जगत-जहान कहै सै, पश्चिम दिशा मै वरूणदेव, बिलोचीस्तान कहै सै, उतर दिशा मै चंद्रलोक, ये बेद-पुराण कहै सै, सुर्य खड़या पृथ्वी घूमै, लिख्या लेख विज्ञान नै ।।

इंद्रलोक स्वर्गपुरी, 15 सौ योजन का राह सै, रास्ते मैं तपै 12 सूर्य, ताती तेज हवा सै, लाख चैरासी जियाजुन का, धर्मराज घर न्या सै, पूण्य और पाप तुलै नरजे मै, वा सच्ची दरगाह सै, राजेराम पार होज्यागा, ला श्रुति भगवान मै ।।

                                (सांग:3 ‘चमन ऋषि-सुकन्या’ अनु.-20)

भीष्म ठा ल्याया अम्बा नै, वा रही थी कंवारी, अम्बा नगरी का राजा, जगदीश होया छत्रधारी, उसका बेटा मै सदाव्रत, या सारंगा प्यारी, आये लेण विमान चलांगे, करके नै त्यारी, कहै राजेराम होया अम्बाला, वा अम्बा नगरी ।।

                                        (सांग:6 ‘सारंगापरी’ अनु.-33)

51 लाख नौ करोड़ योजन, सूर्य की मंजिल भारी, 5 करोड़ 50 लाख योजन, पर्वत-सागर खारी, 35 लाख 2 करोड़ 75 हजार योजन, पृथ्वी सारी, पृथ्वी नै पैताल मैं लेगे, इसे हो लिए बलकारी, वे धरती कै साथ रहे ना, क्यूं तेरी मारी गई मती ।।

                                  (सांग:16 ‘गोपीचंद-भरथरी’ अनु.-11)

चैत-बसाख और धूप ज्येठ की, फेर साढ़ मै बरसै राम, सामण-भादूआ आसोज के म्हां, जमीदार कै छिड़ज्या काम, कातक-मंगसर पोह-माह पाछै, फागण खेलै देश तमाम, फाग दुलहण्डी का मेला, कद फेटण आवै राजेराम, मेला किसा बिछड़ग्या मेली, मै खेल-खिलोणा खोऊं सूं ।।

                                        (सांग:6 ‘सारंगापरी’ अनु.-32)

3 नारी दृष्टिकोण-

होए बीर कै असूर-देवता, और मनुष देहधारी, बीर नाम पृथ्वी का, जिसपै रचि सृष्टि सारी ।। टेक ।।

बेदवती-बेमाता भोई, शक्ति बीर बताई, जगजननी और जगतपिता की, एक ताशीर बताई, ब्रहमजीव कै मोहमाया की, घली जंजीर बताई, पाछै बण्या शरीर, लिखी पहले तकदीर बताई, तकदीर बणादे सेठ बादशाह, राजा-रंक-भिखारी ।।

शक्ति से आकाश रच्या, ना हर की लीला जाणी, खान-पान उद्यान-ब्यान, बयान भविष्यवाणी, पृथ्वी होई बाद मै पहले, अग्न-पवन और पाणी, किन्नर-नाग पशु-पक्षी, होए बीर कै सकल प्राणी, जगत रचाया हर की माया, 13 कास्ब नारी ।।

अगत-भगत और जगत कहै, वंश की बेल लुगाई, ब्रहमा-विष्णु-शिवजी का, करै आनंद खेल लुगाई, 11 रूद्र रचे क्रोध से, सबकै गेल लुगाई, बांधदी मर्याद मनु नै, मर्द की जेल लुगाई, सती लक्ष्मी-देबीमाई, डाण-डंकणी-स्यहारी ।।

राजेराम कहै जती-सती का, धर्म बराबर हो सै, हंस नै ताल, गऊं नै बछड़ा, इसा बांझ नै पुत्र हो सै, सर्प नै बम्बी, पक्षी नै आल्हणा, इसा गृहस्थी नै घर हो सै, धनमाया-संतान-स्त्री, माणस की पर हो सै, बुढ़ा माणस ब्याह करवाले, बण्या फिरै घरबारी ।।

                                        (सांग:6 ‘सारंगापरी’ अनु.-17)

भीड़ पड़ी मै नहीं किसे का, दिया साथ लुगाईयां नै, बड़े-बड़े चक्कर मै गेरे, कर मुलाकात लुगाईयां नै ।। टेक ।।

तिर्णाबिंदु राजकुमारी से, पुलस्त के मन फिरे अक ना, भस्मासुर भी भस्म होए थे, त्रिया कारण मरे अक ना सिया सती जगदम्बे नै, रावण कै खप्पर भरे अक नै, पूर्वा राजा बंधे वचन मै, दुखी शांतनु करे अक नै, चंद्रकेतुए भूप ययाति, और उतानपात लुगाईयां नै ।।

हूर मेनका नै विश्वामित्र के, तप खोए थे, विषयमोहनी के कारण नारद कै, मुह बंदर के होए थे, लाग्या दाग चांद कै भी, इब तक भी ना धोए थे, ऋषि श्रृंगी-दुर्वाशा, धुन्ध ऋषि भी मोहे थे, ब्रह्मा-विष्णु-शिवजी, मच्छन्दरनाथ लुगाईयां नै ।।

पछताया विश्वास भरथरी कर, पिंगला भी घात गई, नूणादेवी पूर्णमल कै, मसलवा काले हाथ गई, चंद्रप्रभा मैनपाल से, कर धोखे की बात गई, ब्याहा पति कुएं मै गैरया, एक साधु कै साथ गई, दुनिया धोखेबाज बतावै, न्यूं कमज्यात लुगाईयां नै ।।

फूट गेरदे सौ कोसा का, भाईचारा करदे सै, बांस बजाकै बेटे नै, मां-बाप तै न्यारा करदे सै, आपा-जापा और बुढापा, सबनै खारा करदे सै, राजेराम कहै प्यारे का, दुश्मन प्यारा करदे सै, पागल कर दिया देश, कमाई कर दिन-रात लुगाईयां नै ।।

                                        (सांग:6 ‘सारंगापरी’ अनु.-16)

4 आध्यात्मिक दृष्टिकोण-

तप मेरा शरीर, तप मेरी बुद्धि, तप से अन्न भोग किया करूं, तप से सोऊं, तप से जागू, तप से खाया-पिया करूं, तप से प्रसन्न, होके दर्शन, भगतजनों नै दिया करूं, मै अलख-निरंजन अंतरयामी, तप कै सहारै जिया करूं, तप से परमजोत अराधना, तप से बंधू वचन के म्हां ।।

तप मेरा रूप, तप मेरी भगती, तप तै सत अजमाया करूं, तप मेरा योग, तप मेरी माया, तप तै खेल खिलाया करूं, कोए तपै मार मन इन्द्री जीतै, जिब टोहे तै पाया करूं, मै ब्रहमा, मै विष्णु, तप से मै शिवजी कहलाया करूं, निराकार-साकार तप तै, व्यापक जड़-चेतन के म्हा ।।

                                            (काव्य विविधा: अनु.-4)

एक साधू रमता राम सै, लिया भगमा बाणा माई ।। टेक ।।

साधू की 18 सिद्धी, पहली सिद्धी सत्यबाणी, दूसरे कै मन की बात जाणूं, तीन लोक की खबर मंगाणी, भूत-भविष्य-वर्तमान, तीन काल की जाती जाणी, सातवी सिद्धी सत पै रहणा, आठ योग नौ नाथ विज्ञानी, दसवें द्वारै जीव चल्या जा, तुर्या पद अटल समाधी लाणी, लौ तै लौ लगै ईश्वर मै, फिरै घूमता भवंर सैलानी, ॐ भूर्भवः महालोक, ब्रहम रूप होए अंतरज्ञानी, परमजोत कुदरत से मिलज्या, मोहमाया से मुक्त प्राणी, आत्मा-परमात्मा कहै सै, मुनि-महात्मा ज्ञानी-ध्यानी, आवागमन छुटै चैरासी, आवै कोन्या मौत निमाणी, सतलोक परम का धाम सै, ना जाके आणा माई ।।

मै उस धूणै का साधू, जिसकी भारी जोग-जमात, चौसठ जोग-जोगनी, तैतीसो चेले सेवक दिन-रात, आठ पंथ नो नाथ, चौरासी का रखवाला गोरखनाथ, पंचमगर-कनपाड़े साधू, जादूपंथी-औघड़नाथ, झाड़े-मंत्र सेवन-विद्या, ब्होत जाणूं करामात, मन चाहवै जिसा भोजन जीमूं, चाहूँ जिसा बणाल्यूं गात, राजा नै कंगाल बणादूं, कंगले कै होज्या धन-जादात, मौज उड़ावै लाल खिलावै, बांझ बणै बेटे की मात, आपस कै म्हा बैर-दुश्मनी, जिसकी चालै पीढी सात, उन माणसा की एक घड़ी म्य, मै करवादूं मुलाकात, मेरै धनमाया किस काम सै, मनै मांगके खाणा माई ।।

वेनजुएला-अल्जीरीया, बेल्जियम मोरी-सूडान, न्यूजीलैंड-थाईलैंड नाईजीरियां, पेरिस-लंदन तालिबान, बैलग्रेड-युगोस्लाविया, मलेशिया दुबई-बहरान, हांगकांग फ्रांस-इटली, लंका आस्ट्रेलिया-रजान, सिंध-काबुल कंधार-ऐशिया, अरबदेश ईराक-ईरान, रूमशाम इंग्लैड-शाहजहां, बर्मा और बिलोचिस्तान, ग्रीक-हंगरी अमरीका-रूस, चीन और जर्मन-जापान, मैगजीन भोनसी-पराना, ऑल इंडिया-पाकिस्तान, आईसलैंड पनामा-पेरू, ताशकंद-उज्बेकिस्तान, रोमानियां-वियतनाम, सिंगापुर मक्का-ताईवान, देख्या मनै तमाम सै, यो घूम जमाना माई ।।

गंगा-जमना 68 तीर्थ, देख लिए मनै चारों धाम, गऊमुखी-बन्द्रीनारायण, पिरागराज त्रिवेणी नाम, सरवण नदी गौतमी-गंगा, गोदावरी पै डटे सिया-राम, ऋषिकेष-हरिद्वार अयोध्या, गौकुल-मथुरा मै कन्हैया-श्याम, रामेश्वर-केदारनाथ, गंगोत्री गयाजी आराम, सोमनाथ-जगन्नाथपुरी, बैजनाथ-बिहार आसाम, पुष्कर-विश्कर्मा ब्रहमपुत्र, त्रिवेन्द-फलगू रस्ता आम, चक्षु-भद्रा सीया-नंदा नर्मदा, तप्ती पै रथ सूर्य नै लिया थाम, कृष्णा-कावेरी पुनमही, पोषणी मै न्हाके करै प्रणाम, ब्राहमण जात प्रेम का बासी, कवि सुण्या हो राजेराम, खास लुहारी गाम सै, मेरा ठोड़-ठिकाणा माई ।।

                                        (सांग:6 ‘सारंगापरी’ अनु.-27)

5 प्रमाणिक दृष्टिकोण-

जवाब:- राजा शुद्धोधन का छोटी रानी गौतमी से ।

महाराणी गई छोड़ कवंर नै, चाला करगी, तू पाळ गौतमी इसका, राम रूखाला करगी ।। टेक ।।

ब्रहमा बोले शक्ति से, नाता जोड़ो शिवजी संग, दक्ष भूप की बेटी सती, बणके आई बामा अंग, शिवजी का पसीना पड़या, जल मै नाटी माई गंग, शिवजी पुत्र कार्तिक, पृथ्वी नै पाल लिया, देवत्यां की कैद छुटी, तारकासूर मार दिया, शिवजी नाट्या सती चाली, पिता नै निरादर किया, सती हवन मै जलकै, जी का गाला करगी ।।

तारावती नै अंगद पाल्या, मदनावत नै रोहतास, सुनीता नै पृथु पाल्या, समझ लिया बेटा खास, सीता जी नै कुश पाल्या, एक दासी धा नै चंद्रहास, गणका नै विदुर पाल्या, यशोदा नै कृष्ण, कुंती नै सहदेव-नकुल, राधे नै पाल्या कर्ण, त्रिशु की राणी नै पाल्या, सहस्त्रबाहु अर्जुन, मकड़ी पूरै तार, भ्रम का जाला करगी ।।

गौरी नै गणेश पाल्या, वो भी गज का रूप करके, शीलवती नै जनक पाल्या, शीलध्वज का रूप करके, इन्द्र नै मानधाता पाल्या, अनुज का रूप करके, सूरस्ति नै सारस पाल्या, दधिचि का जाया करके, रोहणी नै तो बुध पाल्या, चंद्रमा की छाया करके, प्रद्युमन रति नै पाल्या, अपना पति ब्याहा करके, वा पति का पालन नार, पूत की ढाला करगी ।।

मानसिंह नै ऊखां, अनिरुद्ध का बणाया सांग, लख्मीचंद नौटंकी-मीरा, खुद का बणाया सांग, मांगेराम जयमल-फता, बुद्ध का बणाया सांग, बुद्ध का धर्म जाणै, उसकी शुद्ध आत्मा, सारी दुनिया कहती आवै, आत्मा-परमात्मा, राजेराम कित तै ल्याया, टोहके बुद्ध महात्मा, हियै ज्ञान प्रकाश, मात ज्वाला करगी ।।

                                      (सांग:1 ‘महात्मा बुद्ध’ अनु.-11)

शुक्र भेज दरगाह मै, माता भली करै भगवान, जीऊंगा तै फेर मिलुंगा, 12 साल मै आण ।। टेक ।।

उतानपात कै दो राणी थी, दो ब्याह करवाए, महाराणी कै धरूं भगत, छोटी कै उतम जाए, लात मारके मौसी नै, धरूं घर तै कढ़वाऐ, करी तपस्या राजसिंहासन, और विष्णुपद पाए, मां तै मिलण धरूं आऐ, लेके दो वरदान ।।

मदनावत तै बिछड़ गया, हटके रोहताश मिल्या था, मात पोलमा तै शुक्राचार्य, आके पास मिल्या था, परसुराम रेणुका की, सुणके अर्दाश मिल्या था, सत्यवती नै याद करया, बेदब्यास मिल्या था, बणकै राम का दास मिल्या था, अंजनी नै हनुमान ।।

14 साल मै सुमित्रा नै, फेर लछमन मिलग्या, होके सामर्थ देवकी नै भी, फेर कृष्ण मिलग्या, कुंती नै भी गेर दिया था, फेर कर्ण मिलग्या, 12 साल मै मात ईच्छरादे नै, फेर पूर्ण मिलग्या, सुखा बाग चमन खिलग्या, होया खुश राजा सलेभान ।।

प्रद्यूमन रूकमण तै जाके, अखीर मिले थे, माता से अनिरुद्ध लेकै, ब्याहली बीर मिले थे, मैनावंती नै गोपीचंद बण, परम फ़क़ीर मिले थे कहै राजेराम बिछड़ अमली तै, सरवर-नीर मिले थे, चम्बल नदी कै तीर मिले थे, मां नै लिए पिछाण ।।

                            (सांग:5 ‘कवर निहालदे-नर सुल्तान’ अनु.-4)

6 धर्म एवं नीति द्रष्टिकोण-

पहली माता जन्म देण की, दूजी सांस बता राखी, तीजी माता गुरू की पत्नी, वेदां नै गा राखी, चौथी कहैं सै राजमाता, जो राजा के संग ब्याह राखी, पृथ्वी मात पांचवी जिसपै, सकल जहान रचा राखी, अग्न-पवन जल-गगन साक्षी, सूर्य-चांद करै उजियाला ।।

                                      (सांग:2 ‘श्री गंगामाई’ अनु.-24)

मात-पिता गुरू-संत की, सेवा सुबह-शाम करदे सै, पूत-सुपात्र चतुर-लुगाई, उड़ै मौज राम करदे सै ।। टेक ।।

श्रवण की चम्पक बीर नै, एक हान्डी मै दो पेट बणाये, आंधे मात-पिता नै लेकै, श्रवण नदी पै आये, तीर मार दिया धोखे तै, दशरथ न्यू पछताये, श्रवण बोल्या तू पाणी प्याइये, सै मां-बाप तिसाये, मरता-मरता पूत अभागी, इंतजाम करदे सै ।।

सुनीति कै ध्रुव भगत, तारयाँ मै विशेष होये थे, परशुराम प्रचेता, पृथू और लंकेष होये थे, अंजनी कै हनुमान, गौरी कै पूत गणेश होये थे, शकुंतला कै राजा भरत, न्यूं भारत देश होये थे, कोए-कोए पूत पिता का जग मै, अमर नाम करदे सै ।।

हरिशचन्द मद्नावत कै संग, बिक रोहताश गया था, भागीरथ गंगा नै ल्याये, बण इतिहास गया था, चौदह साल राम पिता की आज्ञा तै, बणोवास गया था, पिता कै कारण भीष्म योगी, ले सन्यास गया था, कृष्ण रास रचा गोकल मै, परम धाम करदे सै ।।

पिसा पाह का, साथी शाह का, भा का भाई होवै सै, जीवन-धन घरबारी का, संतान-लुगाई होवै सै, दान-पुन्न यज्ञ-हवन तपस्या, मोक्ष की राही होवै सै, राजेराम अतिथि की सेवा, मान-बड़ाई होवै सै, गाम मै इज्जत सुथरा लागै, भले काम करदे सै ।।

                                         (सांग:6 ‘सारंगापरी’ अनु.-4)

अठाईस गोत ब्राहम्ण सारे, ध्यान उरै नै करणा सै, गृहस्थ आश्रम पति-पत्नी का, धर्म सनातन बरणा सै ।। टेक ।।

सतयुग मै 56 शासन, त्रेता में एक-सौ तीन होए, बारा राशि गोत सताईस, अठाईस जमीन होए, जिनके गोत्र ना जाणे, वे ब्राह्मण विद्याहीन होए, दान-पुन्न यज्ञ-हवन तपस्या, भक्ति कै अधीन होए, खुद भगवान भगत के बस मै, फेर बता के डरणा सै ।।

मुनी वशिष्ठ, अंगीरा-कश्यप, दुनिया के सरताज ऋषि, गालिब-किरतस गौतम-अत्री, अगस्त-भारद्वाज ऋषि, चांदराण-पिपलाण पुलस्त, याजु और पियाज ऋषि, कौशिक भूप होए विप्र, गाधि-विश्वामित्र राज ऋषि, वत्स-वियोग हरितस गोत्र, मुद्गिल और सोपरणा सै ।।

हरित-साण्डल और साकीरत, जमदग्नि के परशुराम, होन्ग-शेषवर कृष्णा-त्रिये, गोत्र होए कृष्णा-शाम, सोहनक ऋषि पाराशर गोत्र, जिसनै पढ़ लिए वेद तमाम, ब्रहम ऋषि भृंगु के बेटे, च्यवन ऋषि है मेरा नाम, वंशावली ब्राहमण कुल की, सुणकै पेटा भरणा सै ।।

जम्बुदीप-भरतखण्डे, आर्यवर्त थे ब्रहामण सारे, विष्णु विश्वे ब्रहम देवता, जगतगुरू बुध और तारे, ईश्वर व्यापक जड़ चेतन मै, माया ब्रह्म जीव धारे, चार बेद छः शास्त्र नै, दिए छाण दूध-पाणी न्यारे, राजेराम कहै अग्नि का मुख, ब्रहाम्ण प्रथम चरणा सै ।।

                                (सांग:3 ‘चमन ऋषि-सुकन्या’ अनु.-31)

गंगा महिमा:-

पवन पवित्र बहता पाणी, आठो याम रहै चलता, परमगती से भारत के म्हां, गंगे धाम रहै चलता ।। टेक ।।

विष्णु के चरण से निकली गंगा, ज्योतिष बेद-विधि का सार, हजार चैकड़ी रही सुरग मै, फिर शिवजी नै ली जटा मै धार, भागीरथ ल्याया मुक्ति पाग्ये, सघड़ के बेटे साठ हजार, अमृतपान किया सूर्य नै, अंबो जल दिया बेशूमार, सूर्य का अर्थ-सुदर्शन चक्कर, सुबह तै शाम रहै चलता ।।

शक्ति चाली परमलोक मै, ब्रह्मा जी धोरै आई, उड़ै किन्नर-गंर्धफ खड़े देवते, ऋषियों की महफिल पाई, एक राजऋषि का ध्यान डिग्या था, हूर पदमनी दर्शायी, श्राप तै होया शांतनु राजा, वा होगी गंगा माई, कर्म संयोग, विधि-विधना की, जिक्र तमाम रहै चलता ।।

वशिष्ठ मुनि की गऊ नंदनी, वसु चुराकै लाये थे, ऋषि कै श्राप तै आठ वसु तो, गंगा जी नै जाये थे, गंगा जी नै सात वसु, जल कै बीच बहाये थे, होया आठवां भीष्म राजा फिर, गंगा तै फरमाये थे, दे वरदान एक पुत्र का, मेरा भी नाम रहै चलता ।।

कृपण का धन शुद्ध होज्या, दान-पुन्न मै लाये तै, कपटी का भी मन शुद्ध होज्या, ज्ञान गुरू का पाये तै, पापी का जीवन शुद्ध होज्या, ईश्वर का गुण गाये तै, कोढी का भी तन शुद्ध होज्या, श्री गंगा जी मै न्हाये तै, दया-धर्म और न्याय नीति पै, राजेराम रहै चलता ।।

                                       (सांग:2 ‘श्री गंगामाई’ अनु.-1)

पंडित राजेराम जी ने बहुत कम पढ़े-लिखे होते हुए भी अपने साहित्यिक जीवन में सांस्कृतिक, धार्मिक, गुरु भक्ति, घर-गृहस्थ उपदेशक भजन, ब्रह्मज्ञान, साध-संगत, श्रंगार व रस प्रधान, अलंकृत, छन्दयुक्त व सौन्दर्य से ओतप्रोत तथा 36 रागों सहित कुछ संगीतमय रचनाये भी की। उनका कहना है कि जीवन स्वयं एक कहानी है और हर घटना व बात में एक कहानी छिपी रहती है। सिर्फ आवश्यकता है तो अपनी बुद्धि से उसे खोजने व शब्दों में बांधने की। अतः उनका मानना है कि साहित्य लेखन और गायन कोई आसान कार्य नहीं है। उन्होंने अपने साहित्यिक जीवन में भिन्न-भिन्न प्रकार की अनेको रचनाये लिखी। उन्होंने अपनी स्मरण शक्ति व आत्मज्ञान के बल पर इस साहित्य संग्रह के संकलित 16 सांगो व 3 संतवाणीयों मे ब्रह्मज्ञान, गंधर्व नीति, ब्राह्मण नीति, साहित्यिक नीति, राजनीति, कूटनीति सहित लगभग 600 से ऊपर रचनाये की जो अपने आप में एक मिशाल है और यह साहित्य संग्रह उन्हें हरियाणवी साहित्य जगत के कवियों मे सम्मान दिलाने के लिए काफी है। इस प्रकार उन्होंने अपने साहित्यिक जीवन में अनेकों सांगो व संतवाणीयों द्वारा 600 से अधिक रचनाये लिखकर हरियाणवी साहित्य जगत में वे अपनी एक पहचान बनाने की क्षमता रखते है, जिनका वर्गीकरण इस प्रकार है-

अ.क्र. पौराणिक/ ऐतिहासिक धार्मिक/ आध्यात्मिक सामाजिक/ समस्यामूलक राष्ट्रीय व सामाजिक चेतना 1 गंगामाई 11. नारद-विषयमोहनी 16. सारंगापरी 19. महात्मा बुद्ध 2 चमन ऋषि-सुकन्या 12. गोपीचन्द-भरथरी 17. चापसिंह-सोमवती 3 सत्यवान-सावित्री 13. बाबा जगन्नाथ-संतवाणी 18. पिंगला-भरथरी 4 राजा दुष्यंत-शकुन्तला 14. बाबा छोटूनाथ-संतवाणी 5 नल-दमयन्ती 15. मीरगिरी महाराज-संतवाणी 6 कृष्ण जन्म 7 कृष्ण लीला 8 रुक्मणि मंगला 9 सरवर-नीर 10 निहालदे-सुल्तान