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सनहा / राकेश रंजन

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मेरा रूमाल कहीं छूट गया है
गुलाबी रूमाल
मेरे नाम के पहले अच्छर
कढ़े थे उस पर
छोटा था
पर छोटी चीज़ नहीं था, हज़ूर !
मेरा सनहा लिख लो
मेरा छाता कहीं छूट गया है
कुछ पुराना था, पर ठीक था
सिर्फ़ एक कमानी ख़राब थी उसकी
ज़रा ऐसे खोलो
तो खुल जाता था
पिता की निशानी था, हज़ूर !

मेरी भाषा कहीं छूट गई है
आसमान में चिरैया जैसी भाषा
छौनों की खातिर
हँकरती गैया जैसी

मैं खो चुका मेहनत का पसीना
रात में परियों के क़िस्से
चौड़े पाटवाली नदी
मिट्टी का सीधा रास्ता
इससे पहले
कि यह भी छूट जाए
कि क्या छोड़ आया हूँ
लिख लो, हज़ूर !

सच कह रहा
बूटों ने कुचल दिया मेरा साहस
बाज़ार ने छीन लिया संघर्ष
प्रेत के पैरों में गिरा आया
अपनी सन्तान

मेरी मुट्ठी में राख है
आँखों में धुन्ध
साँसों में धुआँ
और पैरों में माँस के लोथड़े
मेरी स्मृति में मलबे की गाद
से सनी
वह लहूलुहान बच्ची है
जिसके हाथ में
उसकी माँ का हाथ है
एक कटा हुआ हाथ
जो हमले के बाद
उसके पास बचा रह गया है

सीरिया और गाज़ा और मोसूल
अब यही मेरी स्मृति
सामूहिक हत्याओं के दृश्य
और युद्ध
युद्धों के अन्तहीन सिलसिले
अब यही मेरी नियति
अब यही मेरा शहर
आज जिसकी गलियों में हिंसक जुलूस
आज जिसके हाथों में नंगी तलवारें
आज जिसके सीने में नफ़रत की आग
बुद्ध की पीठ में छुरा घोंपनेवाला
मेरा शहर
पहले ऐसा नहीं था, हज़ूर !

अस्सी के दशक में
ईदगाह
और नवमी के मेले में नंगे पाँव घूमता
एक घूँट शरबत के लिए तरसता मेरा शहर
ख़ून का प्यासा नहीं था आज की तरह
भागलपुर
और मेरठ की तरह
ज़हर नहीं था उसकी रगों में

अस्सी के दशक में
गण्डक के हिलकोरों में सिहरता मेरा शहर
किसी बच्चे की तरह
नंगे पाँव
स्कूल जाता हुआ
और स्कूल से ठीक पहले
जलेबी के पेड़ की छाँव में
मिठास के सवाल को हल करता हुआ
वह शहर कहीं खो गया, हज़ूर !
मेरा सनहा लिख लो

मेरे चारों ओर
चीख़ ही चीख़
विलाप ही विलाप

दंगाइयों ने
जब उस औरत के पेट को छलनी किया
आँतों के साथ
उसका बच्चा बाहर आ गया
ख़ून से लथपथ
वह आँतों को समेटती और बच्चे को सँभालती
कहाँ तक भागती
कब तक बचती
वह गिरी
और ख़त्म हो गई
उसका कुछ भी नहीं बचा
सिर्फ उसके गिरने
और ख़त्म होने की परछाईं बची
साबरमती के जल में

साबरमती से गोमती तक
गंगा-यमुना से दजला-फ़रात तक
आदमी के गिरने
और ख़त्म होने की परछाइयाँ

बूचड़खाने में बदलता मेरा देश
जहाँ ठीहे ही ठीहे
ख़ून ही ख़ून
लोथड़े ही लोथड़े

सोलह दिसम्बर दो हज़ार बारह की रात
संसद के दक्खिन में
जिस बच्ची को हवस के भेड़िए चींथते रहे
और आख़िर में
उसके अंग में सरिया डालकर फेंक गए
अब वही बच्ची मेरी भारत माता
अब वही सरिया
मेरा राष्ट्रध्वज

लिख लो, हज़ूर !
लिख लो!