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दूर खेतों पार / महेन्द्र भटनागर
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शीत की काली भयावह रात !
दूर खेतों पार जर्जर ढूह
जीवन स्तब्ध,
धुंध भीषण, काँपती प्रति रूह;
जन-मन दग्ध,
मूक प्राणों के दमन की बात !
मर्म पर अंतिम विनाशक चोट
घायल त्रस्त,
ले तिरस्कृत प्राण, रज में लोट
पीड़ा ग्रस्त
बद्ध, शोषित, रक्त से तन स्नात !
एक रोदन का करुणतम शोर
गौरव नष्ट,
छा रहा वैषम्य-विष चहुँ ओर
संस्कृति भ्रष्ट,
साँस प्रति कंपन सिहरता गात !
नाशकारी गाज सिर पर टूट
मानव दीन,
सभ्यता का अर्थ हिंसा लूट
ममता हीन,
खो गया तम के विजन में प्रात !
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