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दूर खेतों पार / महेन्द्र भटनागर

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शीत की काली भयावह रात !

दूर खेतों पार जर्जर ढूह

जीवन स्तब्ध,

धुंध भीषण, काँपती प्रति रूह;

जन-मन दग्ध,

मूक प्राणों के दमन की बात !

मर्म पर अंतिम विनाशक चोट

घायल त्रस्त,

ले तिरस्कृत प्राण, रज में लोट

पीड़ा ग्रस्त

बद्ध, शोषित, रक्त से तन स्नात !

एक रोदन का करुणतम शोर

गौरव नष्ट,

छा रहा वैषम्य-विष चहुँ ओर

संस्कृति भ्रष्ट,

साँस प्रति कंपन सिहरता गात !

नाशकारी गाज सिर पर टूट

मानव दीन,

सभ्यता का अर्थ हिंसा लूट

ममता हीन,

खो गया तम के विजन में प्रात !

1951