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दीपक जलाओ / महेन्द्र भटनागर

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आज मेरे स्नेह से दीपक जलाओ !

विश्व कुहराच्छन्न, धूमिल सब दिशाएँ,

चल रही हैं घोर प्रतिद्वन्द्वी हवाएँ,

त्राण मेरे अंक में, आकर समाओ !

आज नूतन फूटती आओ जवानी,

मुक्त स्वर में गूँज लो अवरुद्ध वाणी,

यह नवल संदेश युग का, कवि, सुनाओ !

गिर रही हैं जीर्ण दीवारें सहज में,

टूटती हैं शीर्ण मीनारें सहज में,

हो नया निर्माण, जर्जरता हटाओ !

आज मेरी बाहुओं का बल तुम्हारा,

आज मेरा शीश - प्रण अविचल तुम्हारा,

त्रस्त, घायल, सुप्त दुनिया को जगाओ !

1950