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आभास होता है / महेन्द्र भटनागर

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आभास होता है

कि सदियों बद्ध बंधन

आज खुलकर ही रहेंगे !

इन धुएँ के बादलों से

आग की लपटें लरज कर

व्योम को

निज बाहुओं में घेर लेंगी !

शक्तिमत्त-मद

विषैला-नद जलेगा,

हर उपेक्षित भीम गरजेगा

तुमुल संगर धरा पर !

गढ़ दमन के

राह के फैले हुए आटे सदृश

संघर्ष की भीषण हहरती

आँधियों के बीच

उड़ मिट जाएँगे !

विश्वास होता है

कि दौड़ा आ रहा

उन्मुक्त युग-खग,

सब पुरातन जाल जर्जर तोड़कर !

अब तो जलेगा

सत्य का अंगार !

जिसके ही लिए

यह आज तक अविश्रांत

लालायित रहा है

पीड़ितों भूले हुओं का

जागता संसार !

मोचन शोक,

दुख हत तेज,

गिर रही है भंगिमा

माया विभेदन,

दीखती अभिनव-किरण

1950