भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

घर की देवी / कुँवर दिनेश

Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:05, 29 मई 2018 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


सूर्य आ खड़ा होता है
हमारे घर की देहली पर,

उसके महाघोष के सथ ही,
हमें रज़ाई से
बाहर खदेड़ने को;

आलस्य के वशीभूत, पलंगतोड़ हम,
घोंघों के जैसे,
धँसते जाते हैं
ऊनी लिहाफ़ों में;

जागकर सबसे पहले,
लवे के सथ-साथ,
स्वागत करते
दर्वाज़े को खटखटाती
सूर्याँशुओं का;

और फिर सुनते हुए
हमारी पुकार―
प्रात: की बिस्तरी चाय के लिए;

वह रहती है हमेशा
वक्त की पाबंद,
चाहे गर्मी हो, बर्सात हो,
या फिर कड़कड़ाती
सर्दी हो, बाहर हिमपात हो,

वह करती है सेवा
नि:स्वार्थ भाव से,
भृकुटि पर
बिना किसी बल के;

वह माँ है, पत्नी है,
चाची है, भाभी है,
बहू है―सब
एक ही समय पर;

हर सुबह
होती है प्रकट वह-
चाय की प्यालियाँ लेकर
हर पलंग के पाये पर।