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और ही राग / अजित कुमार

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टेबिल टाप पर तुम्हारी उँगलियाँ

पड़ी हुई थीं निर्जीव

और मैं प्रतीक्षा में थी दम साधे

कि अब वे हरकत करेंगी-


धिनक धिनक धिन्... धिनक धिन्...

रच दोगे तुम एक अनोखा संगीत

जिसकी लय पर मैं थिरकने लगूंगी

धिनक धिनक्... धिन्... ता...


पर वे थीं कि हिले-डुले बिना

वैसी ही थमी रहीं उसी जगह अचल

गहरे मौन का या निष्प्रभ जीवन का

एक और ही राग अलापती हुईं

जिसमें डूबती–डूबती मैं जा पहुँची अतल में ।