रात अभी आधी है गुजरी / राम लखारा ‘विपुल‘
सुरभि! सुंदरी! प्रिये! माधवी! रजनीगंधा पुष्प कली!
रात अभी आधी है गुजरी इतनी जल्दी कहां चली?
पंथ बुहारा जिसका तुमने आज मिलन को है आया,
तन पुलकित है मन हर्षित है सोमदेव मन मुस्काया।
नयन बंध का आज समर्पण हो जाए हो जाने दो,
पूरी दुनिया सोती है तो अच्छा है सो जाने दो।
जो इच्छा मांगी थी मिलकर वो इतने दिन बाद फली,
रात अभी आधी है गुजरी इतनी जल्दी कहां चली।
चलों गगन में गोते मारे अपनी पंखुरिया खोलों,
नीरव निर्जन इस वन में हम निपट अकेले तुम बोलों।
कुल होने का समय मुकम्मल शेष सोचकर क्यों चिंतित,
साथ तुम्हारें खड़ा प्रेयसी थर थर कांपों ना किंचित।
जग की चिंता है तो छोड़ों हम से प्रीती नहीं भली,
रात अभी आधी है गुजरी इतनी जल्दी कहां चली।
आज हवन की तैयारी है पूर्ण करे मिलकर आओं,
समिधा लेकर मैं आया हूं स्नेह सुधा तुम बरसाओं।
पहरा तारों का है जब तक करे प्रेम की अठखेली,
निशा चुनर को धवल करे हम दूर खड़ी है जो मैली।
इन प्राणों के पुण्य हवन में अब तक आधी सांस जली,
रात अभी आधी है गुजरी इतनी जल्दी कहां चली।