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वह क्या नदी थी... / धनंजय वर्मा
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होता है एक दरख़्त समूचा
कटता है तो अरअरा के गिर पड़ता है
भीतर ही भीतर या सूख के
नंगी बाँहें तान देता है आसमान में
नाक़ाबिले बर्दाश्त है, नामुमकिन है भूलना
अपनी जड़ें उसके लिए।
नहीं है, कुछ भी नहीं है
न शिकवा, न शिकायत
है तो महज़
इक क़स्बे की वीरान दोपहर की उदास ख़ामोशी है,
काई और सिंवार की बिसायन्ध है
सूख गई है
पारदर्शी जल की आक्षितिजी फैली नदी !
बन्द एक तालाब से निकली
और दुसरे में समो गई
वह क्या नदी थी...