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सुलगते नहीं हैं दिल... / धनंजय वर्मा
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फिसलता चला जा रहा
वक़्त कमबख़्त
भिंची मुट्ठी में रेत की तरह
मरदुआ
सारा का सारा सरक गया
हथेली झाड़ कर !
जुगनुओं की जलती-बुझती रौशनी में
छूते आसमान पेड़ों की कतार
कद्दे आदम घास
पैरों लिपटती लतर
बनैले रास्तों से
घने जंगलों में तलाशता हुआ घर
कित्ती दूर आ गया
अपनी ज़मीन से... !
धधक रहा है दावानल
औ’ सुलगते नहीं हैं दिल... !