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सूरज निकला... / धनंजय वर्मा

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एक क़स्बे की कीचड़ भरी आँख
तराई की झील
झील के परले सिरे पर उझकती
उस आदमी की उठी बाँहों पर
पेशानी के पसीने को
हीरे की कनी बनाता
हर गोशे को रौशन करता
सूरज निकला
चढ़ता चला गया रफ़्ता-रफ़्ता
आसमान पर...

पत्थर पिघल कर आदमी होने लगे... !