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दोहा सप्तक-04 / रंजना वर्मा
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नव शिशु सा चन्दा उगा, दिन दिन बढ़ता गात।
हुईं कलाएँ पूर्ण जब, आयी पूनम रात।।
चटक उज्ज्वला चाँदनी, बिखरी चारो ओर।
क्षीर स्नान कर रही, जग शिशु को विधि कोर।।
आंखों की गंगाजली, अर्घ्य अश्रु की धार।
रोते रोते हँस पड़ी, कैसा अदभुत प्यार।।
चटक चाँदनी रात में, चीखा चतुर चकोर।
प्रियतम प्रेम पयोधि का, मिला न कोई छोर।।
रहे सिहरतीं डोलती, यह पीपल की छाँव।
अथक नाचते ही रहें, पत्तों के लघु पाँव।।
राहें क़रतीं बतकही, हवा छेड़ती साज।
मौसम बाट निहारते, कब आवे ऋतुराज।।
कैसा रूप अनूप है, इन पलकों में बंद।
अनचाहे ही अधर से, फूट रहे हैं छंद।।