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दोहा सप्तक-20 / रंजना वर्मा
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पेट पकड़ माँ रो रही, पत्नी छाती कूट।
पाने हेतु मुआवजा, स्वजन मचाते लूट।।
गीली गीली रात से, निकली सीली भोर।
पीली पीली धूप भी, गयी गगन की ओर।।
उत्तर के नागर सभी, ताप रहे हैं आग।
चिथड़ा कथरी ओढ़ के, रात रही है जाग।।
गीली गीली सर्दियाँ, लगीं कंपाने हाड़।
बार बार शीतल पवन, खड़का रहा किवाड़।।
निर्धनता ऐसी मिली, जैसे तपती रेत।
सूरज तपता शीश पर, भूख जगाये खेत।।
जर्जर काया ठूंठ सी, ऐसी दिखे विपन्न।
प्यास लरजती आँख में, नहीं पेट में अन्न।।
पिछले जन्मों में किया, ना जाने क्या पाप।
जो इस जीवन में मिला, निर्धनता अभिशाप।।