भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहा सप्तक-19 / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:00, 13 जून 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना वर्मा |अनुवादक= |संग्रह=दोह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जाने कब सूरज उगे, जाने कब हो भोर।
वैरी अँधियारा मिटे, जब हो सुखद अँजोर।।


भय विनाश आतंक का, रंग हुआ है लाल।
कौन रंग हो प्यार का, है यह कठिन सवाल।।

जीवन है सस्ता बहुत, महंगा मन का चैन।
दिन विनाश के दूत हैं, सहमी सहमी रेन।।

फैली शोलों की तपिश, खून हुआ अनुराग।
होली तो हो ली मगर, धधक रही है आग।।

हिंसा खून विनाश का, किसने किया प्रबन्ध।
घुली फागुनी पवन में, है बारूदी गन्ध।।

हर आशा पत्थर हुई, हुई कामना बाँझ।
कुर्सी कीर्तन कर रहे, नेता लेकर झाँझ।।

थर थर काँपा गुलमोहर, झर झर झरा पलास।
आतंकित परिवेश में, जीवन की क्या आस।।