भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दोहा सप्तक-31 / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:42, 14 जून 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना वर्मा |अनुवादक= |संग्रह=दोह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
हँसते हँसते देश पर, जो होते बलिदान।
उसका ही होता सदा, इस जग में सम्मान।।
महंगाई बढ़ने लगी, सुरसा वदन समान।
रिश्ते नाते टूटते, विवश बहुत इंसान।।
अति पुनीत नगरी अवध, पावन सरयू धाम।
महिमा अनुपम देश की, हुए अवतरित राम।।
गोरी गोरी राधिका, श्याम सलोना श्याम।
जिसके मन मे जो बसा, वही लगे अभिराम।।
भारत की जय बोल कर, युवक दे रहे प्राण।
पायेगा कब देश यह, पराधीनता त्राण।।
माता की हो वन्दना, जिन्हें नहीं मंजूर।
ऐसों को क्यों मिल रहा, संरक्षण भरपूर।।
चन्दन मर महका गया, देशभक्ति के फूल।
वन्दन नित करती रहे, उसके पग की धूल।।