भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दोहा सप्तक-58 / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:56, 14 जून 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना वर्मा |अनुवादक= |संग्रह=दोह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
तेज भरा आनन रहे, यदि हो हृदय पवित्र।
मुखमण्डल होता सदा, मन भावो का चित्र।।
सूरज तपता शीश पर, बरसे भीषण आग।
कब तक तू सोया रहे, अब तो मानव जाग।।
फ्लैटों भरी इमारतें, भूतल में गैराज।
शोभा वृक्षों को लगा लूटें धोखेबाज।।
झुलस रहे हैं ग्रीष्म में, कितने ही परिवार।
लाखों देकर घर मिला, फिर भी तो बेकार।।
दीवारें लोहा भरी, गेह घोंसला वृन्द।
तेज हवा झकझोर दे, दफ़्ती के मानिंद।।
जब जब धरती काँपती, पल भर जाते जाग।
मृत्यु भवन में आसरा, भाग सके तो भाग।।
दूर दूर तक तरु नहीं, बैठे आँखें मूंद।
पपड़ाये सूखे अधर, दुर्लभ जल की बूंद।।