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दोहा सप्तक-61 / रंजना वर्मा

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सोयी सोयी साँझ है, थकी थकी सी भोर।
रोयी रोयी ही हवा, थमा थमा सा शोर।।

निर्धनता ऐसी मिली, जैसे तपती रेत।
सूरज तपता शीश पर, भूख लगाये खेत।।

जर्जर काया ठूंठ सी, ऐसी लगे विपन्न।
प्यास लरजती आँख में, नहीं पेट में अन्न।।

पिछले जन्मों में किया, ना जाने क्या पाप।
जो इस जीवन मे मिला, निर्धनता अभिशाप।।

ठिठकी ठिठकी है नदी, ठहरा हुआ बहाव।
बन्धन चारो ओर है, किधर पसारे पाँव।।

अपने हाथों कर रहे वृक्ष विटप का ह्रास।
आने वाली पीढ़ियाँ, कैसे लेंगीं साँस।।

कालिख ले बहती हवा, काली काली धूल।
हरियाली रेहन हुई, कहाँ खिलेंगें फूल।।