भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहा सप्तक-63 / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:04, 14 जून 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना वर्मा |अनुवादक= |संग्रह=दोह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

टुकुर टुकुर है ताकती, बिटिया माँ की ओर।
उसकी खातिर भी कभी, आयेगी क्या भोर।।

चलते चलते थक गये, माँ के बूढ़े पाँव।
अब तक क्यों आया नहीं, मेरे सुत का गाँव।।

तिरछी चितवन श्याम की, कजरारे दो नैन।
रातों की निंदिया गयी, गया दिवस का चैन।।

छिप छिप कर देखूँ तुझे, ले घूँघट की आड़।
विरहा ने जैसे किया, पथ में खड़ा पहाड़।।

मधुर मिलन की आस में, मुख पर हुआ उजास।
अब तो आ जा साँवरे, इस विरहिन के पास।।

नैनन के पथ आ पिया, उर में करे निवास।
पलक मूँद देखा करूँ, मिटे न मन की प्यास।।

समझ इशारों को पिया, देख पलट इक बार।
फागुन के इस रंग ने, नैन किये रतनार।।