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दोहा सप्तक-64 / रंजना वर्मा
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जीव ईश का है यहाँ, ऐसा कुछ सम्बन्ध।
जैसे नदिया ने किया, सागर से अनुबन्ध।।
रात दिवस है योगिनी, जप्ती हरि का नाम।
साँसों के सोपान चढ़, आया मन के धाम।।
धड़कन नित जपने लगी, अब तो प्रिय का नाम।
हृदय धाम करने सदन, आ भी जा घनश्याम।।
बैरी बादल कर गये, बिन मौसम बरसात।
सब उम्मीदें जल गयीं, ओलों के आघात।।
सूनी आँखें देखतीं, नष्ट हो रहे खेत।
लगता है मर जायँगे , सब परिवार समेत।।
बिलख बिलख कर थक गये, अश्रु गये सब सूख।
है कचोटती पेट को, आने वाली भूख।।
धुन मृदंग मीठी बड़ी, जब जब पड़ती थाप।
तन मन रँगता प्रीति रँग, मिट जाता सन्ताप।।