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दोहा सप्तक-65 / रंजना वर्मा

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घर की ऊँची धरन से, दिया स्वयं को टाँग।
कब तक सूनी देखता, वह बिटिया की माँग।।

रात दिवस है चल रही, यों उन्मुक्त बयार।
यादों की गंगाजली, मन - मन्दिर के द्वार।।

स्वर्ण रजत अरु रत्न को, पाने की है होड़।
ज्ञान रत्न सबको मगर, देता पीछे छोड़।।

भौतिक सुख संसार के, इन्हें निरर्थक जान।
सब है नश्वर पर अमर, रहता केवल ज्ञान।।

अब भी घन से बरसती, है शीतल जल धार।
किन्तु हमारे बीच से, कहाँ उड़ गया प्यार।।

भाई का भाई हुआ, अब तो पट्टीदार।
किसने आकर खींच दी, नफ़रत की दीवार।।

चमक उठी विद्युत्लता, गरज उठे घन घोर।
बरखा बरसी झूम कर, जल ही जल सब ओर।।