भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहा सप्तक-70 / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:07, 14 जून 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना वर्मा |अनुवादक= |संग्रह=दोह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पड़ीं दरारें देह में, गयी धरा सब सूख।
सिर बांधे बैठा कृषक, मरी पेट की भूख।।

नयनों की गंगाजली, आँसू का जल डाल।
बूँद बूँद हर याद की, हमने रखी सँभाल।।

प्रहरी बन कर देश के, दे देते हैं जान।
किन्तु कहाँ मिलती उन्हें, है सच्ची पहचान।।

आग सुलगती हर तरफ, देश न पाये चैन।
व्यर्थ लगे बलिदान तब, जब दुखमय दिन रैन।।

मन की आँखों देखिये, मिल जाये करतार।
नयन न देखे देखता, सब को पालनहार।।

सब की नजर बचा सखी, आ बैठी इस ओर।
पिय की पाती हाथ में, छिपता जैसे चोर।।

लिखती फूलों से पता, पंखुरियों से नाम।
जा तू अपने घर सखी, अब तेरा क्या काम।।