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दोहा सप्तक-87 / रंजना वर्मा

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फूल वहाँ खिलते नहीं, जहाँ नहीं हो नीर।
बिना नीर जीवन नहीं, ऊसर सी तस्वीर।।

द्वार आपके आ गये, सुनिये दुर्गा मात।
शरण पड़े हैं आपकी, ले दुर्बल मन गात।।

बिना नीर की बूँद के, वसुधा होती बाँझ।
सागर जल पाये बिना, कब सतरंगी साँझ।।

लाली छायी गगन में, आँगन उतरी शाम।
चल चल कर दिनकर थका, चाह रहा आराम।।

भाती है मन को नहीं, ऊसर की तस्बीर।
जीवन का श्रृंगार नित, करते नीर समीर।।

स्वागत अभिनव सूर्य का, जो आया है द्वार।
लाया है सब के लिये, किरणों का उपहार।।

चित्रलिखित सी गोपिका, लिखी भित्ति में काढ़।
नैना मूक पुकारते, ऐसी प्रीति प्रगाढ़।।