भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दोहा सप्तक-85 / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:28, 14 जून 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना वर्मा |अनुवादक= |संग्रह=दोह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
माता द्वारे पर खड़ीं, ओढ़ चुनरिया लाल।
चरणों में नत हो रहे, युवा वृद्ध अरु बाल।।
पारे की डिबिया सदृश, तरल सरल दिनमान।
किरण करों से कर रहा, जन जन की पहचान।।
सदा सत्य की राह में, आते हैं व्यवधान।
सत्साहस के साथ ही, बढ़ पाता इंसान।।
पर स्त्री माता सदृश, पर सम्पति ज्यों धूल।
निरासक्त के ही हृदय, खिलें शांति के फूल।।
नीले अम्बर में उड़ें, बादल ज्यों खरगोश।
प्रकृति सुंदरी नित्य ही, कर देती मदहोश।।
नीलाम्बर करता सदा, धरती पर उपकार।
बरसा जाता प्रेम से, निर्मल जल की धार।।
पतँग कामना की उड़े, सदा गगन की ओर।
मन बालक थामे रहे, कस कर उसकी डोर।।