भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहा सप्तक-96 / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:49, 14 जून 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना वर्मा |अनुवादक= |संग्रह=दोह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आँगन के इस ओर हम, तुम आँगन के पार।
वैमनस्य ने खींच दी, है मन में दीवार।।

आँचल को छू कर गया, चंचल चपल समीर।
अब तो आ जा साँवरे, मन यमुना के तीर।।

कब कब दुर्घटना हुई, कहाँ आ गयी बाढ़।
धन के लालच में हुए, सब सम्बन्ध प्रगाढ़।।

तब न सुरक्षा दे सकी, अब करती उपकार।
मृतकों की कीमत लगी, है देने सरकार।।

पेट पकड़ माँ रो रही, पत्नी छाती कूट।
पाने हेतु मुआवजा, स्वजन मचाते लूट।।

योग सदा से ही करे, जीवन का उत्थान।
सतत दिलाये जगत में, मां और सम्मान।।

तन मन का मस्तिष्क से, जब होता है योग।
आत्म तत्व से जीव का, तब होता संयोग।।