भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
स्वप्न भी छल, जागरण भी / हरिवंशराय बच्चन
Kavita Kosh से
Tusharmj (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 01:47, 16 जुलाई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन |संग्रह= निशा निमन्त्रण / हरिवंशराय ब...)
स्वप्न भी छल, जागरण भी
भूत केवल जल्पना है
औ’ भविष्यित कल्पना है
वर्तमान लकीर भ्रम की, और है चौथी शरण भी
स्वप्न भी छल, जागरण भी
मनुज के अधिकार कैसे,
हम यहाँ लाचार ऐसे,
कर नहीं इनकार सकते, कर नहीं सकते वरण भी
स्वप्न भी छल, जागरण भी
जानता यह भी नहीं मन,
कौन मेरी थाम गर्दन,
है विवश करता कि कह दूँ, व्यर्थ जीवन भी, मरण भी
स्वप्न भी छल, जागरण भी