भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

द्रुपद सुता-खण्ड-34 / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:21, 14 जून 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना वर्मा |अनुवादक= |संग्रह=द्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

घहर घहर घिरीं, घनश्याम थीं घटायें,
छहरछहर केबरसने लगा है जल।
छम छम नूपुरों सी, नाचती हैं कालिका के,
नम नम बूंदें एक, करती हैं जल थल।
बावरी हुई है घिर, सांवरी घटाओं में ये,
दामिनी सी कामिनी चमकती है पल पल।
नियति से ऊबी आँसुओं में हुई डूबी ऐसी
फटतीवसुंधरा अचल हुए जाते चल।। 100।।

डोला पद्म आसन है, हिला हंस आसन भी,
शेष शेषशायी पगों, में है सिर धुनता।
कांपती दिशा उमड़, रहा नित जलनिधि,
हिमगिरिकम्पित है, मनकुछ गुनता।
हड़कम्प अनुकम्प, ऐसा था भूकम्प मचा,
अम्बर धरा का कण, कण जल बुनता।
व्याकुल चकित सा, पवन बहता है हाय,
आज अबला की टेर, कोई नहीं सुनता।। 101।।

देवों के भी देव शिव, अनन्त वो शक्तिपुंज,
जग को नचाने को,उठायी है जो उंगली।
त्रिभुवन त्रय ताप, पल में मिटाने वाली,
सिद्धों को रिझाने को, बनाई है जो उंगली।
हिलते ही जिस के जरा सा सृष्टि होती लय,
प्रलय विलय में, समायी है जो उंगली।
द्रुपद सुता की लाज,जायेगी न यूँ ही आज,
सभा में बचाने उसे, आयी है वो उंगली।। 102।।