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द्रुपद सुता-खण्ड-11 / रंजना वर्मा

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अंतर में आभिमान, ज्वाला है धधक रही,
पीड़ा अपमान की है, साल रही मन को।
नख से शिखर तक, जिस ने जलाया उसी,
रोष ने अरुणिमा दी, अपनी नयन को।
बरस बरस कर, बचाने चले हैं दृग,
विपदा-अनल में झुलसरहे तन को।
संयत स्वयं को जो, कर न सकी ये आज,
कौन रोक पायेगा विनाश के पवन को।। 31।।

विकल झटकती है, शीश हो विकल जैसे
व्याकुल सा फन को, पटक रहा व्याल है।
भरती उसाँस जैसे, नाग फुफकार रहा,
आहतविवशपर, भृकुटिकराल है।
लगता है भस्म कर, डालेगी जगत को ये,
रुष्ट चण्डिका के कण्ठ, पड़ी मुण्डमाल है।
देख के सती का रोष, भीत है पितामह भी,
कौरवों के शीश पे मचल रहा काल है।। 32।।

रोष देख नारी का ये, हँसता विवशता पे,
हुआ ये सुयोधन तो, बड़ा अनाचारी है।
कुत्सित इशारे कर, कहता गरल स्वर,
आज तो ये घृत भरी, कड़ाही हमारी है।
पाँच भाइयों में बंटी, देखते सदा ही रहे,
भाग हैं खुले जो आयी, अपनी भी बारी है।
तरसाया कितने ही, दिन इस रूप ने है,
इस को छिपाये आज, भी क्यों यह सारी है।। 33।।