द्रुपद सुता-खण्ड-02 / रंजना वर्मा
मति हुई काली बलशाली है कुचाली बड़ा
सिंधु में सुयोधन डुबोता कुरु-वंश को।
दृग से विहीन धृतराष्ट्र राजा बुद्धिहीन
हृदय से हीन हो बढ़ाता निज अंश को।
सृजती जो नर को उसे ही दुत्कार रहा
सृजन मिटा के है बढ़ा रहा विध्वंस को।
प्राण नही लेता लाज आन मान छीन रहा
कौरव कुटिल है लजाता आज कंस को।। 4।।
पिता के कु-शासन में सुत है सुशासन सा
केश खींच लाया बड़े भाइयों की रानी को।
पांव लटपट होते आँचल घिसट रहा
रोकता नहीं क्यों कोई ऐसे अभिमानी को।
तार-तार होता पट जार-जार रोते नैन
कोई तो बचा ले इस दीन हीन प्राणी को।
मुख है मलीन हाय कैसी है निपट दीन
तड़प रही ज्यों मीन चुल्लू भर पानी को।। 5।।
रानी इंद्रप्रस्थ की के तन को भी हार बैठे
ऐसे ये जुआरी सारे जग से निराले हैं।
पति ये सु-पति नहीं बने अभिशाप आज
भामिनी को दांव पे लगाते मतवाले हैं।
लगते ही हाथ जूड़ा खुल के बिखर गया
चूमते धरा के पाँव केश काले काले हैं।
नाग के सुतों से श्याम तन से लिपट रहे
आज हतभागिनी के ये ही रखवाले हैं।। 6।।