द्रुपद सुता-खण्ड-20 / रंजना वर्मा
करता दुशासन है, मुझे वसनों से हीन,
कुल की वधू के प्रति, भावना मलीन है।
निपट अकेली हूँ मैं, दुखिया अभागिनी हूँ,
एक वसना की इस, कांति हुई क्षीण है।
जाल में फँसी मृगी सी, हो रही बड़ी अधीर,
मछुओं के जाल बीच, अब यही मीन है।
यदुवंश अवतंस, प्यारे द्रौपदी के वीर,
बहिन तुम्हारी आज, हुई अति दीन है।। 58।।
नीचता सुनाऊँ कहाँ, तक मैं सुयोधन की,
मिथ्या शक्ति के घमण्ड, फिर रहा फूल के।
द्वेष दम्भ दर्प भरा, हुआ अभिमानी ऐसा,
कुल की परम्परा औ, धर्म रहा भूल के।
सुमन सदृश सदा, स्नेह से जो पाले गये,
देते हैं चुभन आज, कुञ्ज बन शूल के।
कैसी ये अनीति हुई, विपरीत सारी नीति,
आम्र-पादपों मेंफल, लगते बबूल के।। 59।।
पुरुष रहा जो मात्र, परुष हृदयहीन,
जान कभी पायेगा न, स्नेह को ममत्व को।
करता है उपभोग, भोग योग्य मानता है,
जानेगा कभी क्या किसी, नारी के महत्व को।
जीत जो न पाया हिंस्र, काम लोभ मोह पशु,
पशुता निगलती है, वही मनुजत्व को।
बोलो बनवारी बाँके, ब्रज के बिहारी श्याम,
आ के न बचाओगे क्या, दुखिया के सत्त्व को।। 60