द्रुपद सुता-खण्ड-18 / रंजना वर्मा
सृष्टि के रचयिता हो, कहते सभी हैं तुम्हे,
जानती नहीं मैं तुम्हे, विधि या विधाता हो।
मैंने तो सुना है जग, में ये बस इतना ही,
तुम सा नहीं है कोई, तुम बड़े दाता हो।
दाता हो या धाता तुम, भाग्य हो विधाता हो या,
माता जैसे पालक हो, दुखियों के त्राता हो।
विश्व के लिए हो चाहे, कितने महान पर,
द्रुपद-सुता के तो अकेले एक भ्राता हो।। 52।।
झूठा है समाज झूठी, आस और राज सब,
हुईहै निराश आज, हार रही द्रौपदी।
कैसी है अनीति भाग्य, भी है विपरीत हुआ,
नयनों से अश्रु-बिंदु, वार रही द्रौपदी।
पाँच पतियों की हूँ मैं, मेरा क्या बिगाड़े कोई,
अपनाभरोसा यही, मार रही द्रौपदी।
आओ घनश्याम आज, जाती है सखी की लाज,
कृष्ण को पुकार बार, बार रही द्रौपदी।। 53।।
सुयश बखानते थे, जिसका स्वयम्बर में,
पत्नी को हारना उन्हीं, की तो लाचारी है।
असुरारी हे मुरारी, सुनो चक्रधारी श्याम,
बहिन तुम्हारी पर, विपदा ये भारी है।
मेरे घनश्याम प्यारे, भाई श्याम साँवरे हे,
द्रुपदा तुम्हारी तुम, सी ही हुई कारी है।
आपदा सदा से तुम, सब की मिटाते रहे,
आज इस अबला की, आपदा की बारी है।। 54।।