भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

द्रुपद सुता-खण्ड-19 / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:34, 14 जून 2018 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

छलिया छबीले छैल, चपल चतुर चोर,
रसिया अनोखे बड़े, रस के खिलाड़ी हो।
नवनीत के रसिक, नीति नय ज्ञाता श्याम,
खींचते सदा से नेह, नाते की ये गाड़ी हो।
नटखट नटवर, नन्द के दुलारे लाल,
राजनीति की तुम्हारी, चाल भले आड़ी हो।
बहिन की विपदा न, आये जो मिटाने आज,
जगत कहेगा तुम, सच ही अनाड़ी हो।। 55।।

जायेगी कभी क्या तज, जीवन-गगन को ये,
विपदा की घटा मन, नभ में जो छायी है।
उलझन बन आयी, जब कठिनाई कोई,
तुम ने समस्या यह, सारी सुलझायी है।
कहते सदा ही रहे, चिंतित न होना कभी,
चिंता करने को द्रौपदी, का यह भाई है।
शायद इसी से इस, कठिन समय याद,
इस अबला को आज, साँवरे की आयी है।।56

राखी को बंधाने वाले,वीर बलवीर प्यारे,
भेज दो सन्देस भी तो, सिर बल आऊँ मैं।
भाभियाँ सखी सी मेरी, भतीजे सुअन सम,
मायके का सुख ऐसा, और कहाँ पाऊँ मैं।
गज पे पड़ी जो भीर, दौड़ के मिटायी पीर,
रूप पे तुम्हारे उसी, बलि-बलि जाऊँ मैं।
करुणा के सागर हो, सुनो नयनागर हे,
तुम को व्यथा मैं कैसे, अपनी सुनाऊँ मैं।। 57।।