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कविता (1) / मोहम्मद सद्दीक

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ठाण पर बंध्योड़ा सूदा सांसर
काळै-काळरो कलेवो
साफ नाजोगा निकाम
ना दूदरळै ना दूद रळावै
सूखै हाडकां सूं दूद!
कठै सूं आवै
घणै कामरा हां
इतिहास परतख बतावै।
कदै कदास बांटो-चाटो
बोदी कड़बी रा दो चार सूखा डांखळा
बां‘रै ठाण में राळनो
मिनखां चारै री पिछाण
पूरै मानखै री मेहताऊ मांग है
हाण हार्योड़ा टिग टूट्योड़ा
बेसक्यां पड़योड़ा ए सूदा सांसर
जद-कद भां-भां अर ड़ावै
समूचे समाज रो
सणकारो निसर जावै
ना आगै रा ना लारै रा
मिनख रो खूंटो छोड‘र जावै तो कठीनै जावै
आगोतर री चिंता करणिया
स्वरग में ठिकाणो ठावो करण नै
आपरै नामूज खातर
खोल तो दी है गऊशाळावां
सूदी गायां खातर
नागड़िये खुरसंडिये, सांडां वास्ते।
सांसरां री महताऊ करणी रा मीठा फळ
भागजोग
लावारिस सांसरां रो कुण धणी
मिनख पणो धाप‘र हीणो
कठै धार हिये री गमगी हीरकणी।